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464 :: मूकमाटी-मीमांसा
'मूकमाटी' महाकाव्य सगुण-निर्गुण से दूर, सत्-असत् से अलग, सभी वाद-विवादों से मुक्त अपने आप में सत्य की प्रतिष्ठा का गौरव है । सत्य कडुआ होता है, अतः नीलकण्ठ' होना आवश्यक है । यदि हम इसकी गहराई में उतरना चाहें तो यह कार्य कठिन भी है। इसीलिए हलका-फुलका पढ़ने वालों को यह कहीं-कहीं गद्य काव्य का आभास दे जाता है।
__ कविता की कसौटी पर कसा जाने के लिए यह 'भाव काव्य' तो है नहीं, जो इसमें कविता के वे तत्त्व खोजे जाएँ, जो साधारण कविता के मूल्यमापन हैं । दार्शनिक काव्य, दार्शनिक तत्त्वों के आधार पर तौला जाना चाहिए। यहाँ स्वयं आचार्यजी कह रहे हैं :
"कहते लज्जानुभव हो रहा है/प्रासंगिक कार्य करने में
पूर्णत: हम अक्षम हैं/एतदर्थ क्षमाप्रार्थी हैं।” (पृ. ४७१) यहाँ दर्शन के साथ क्षमा याचना की, नम्रता एवं पूर्णता का आभास है । अहम् और औद्धत्य का अछूतापन 'मूकमाटी' का गौरव है । यहाँ तक पहुँचना सहज साध्य नहीं है । फिर विद्यासागरजी मिट्टी की मूक वेदना को अभिव्यक्ति देकर यह भी सिद्ध कर देते हैं कि मिट्टी जैसी वस्तु भी फालतू नहीं होती। उसके अपने सुख-दुःख हैं। यह तो कुम्हार की कुशलता है कि वह उसे कैसा रूप दे।
___मिट्टी से मंगल कलश तक की यह यात्रा किस पथ से सुकर है ?--इस तरह का उपदेश 'मूकमाटी' में न होकर वह पथ प्रदर्शक है, इसलिए ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे' दोष से काव्य बच गया है।
अब दर्शन को काव्यविधा में व्यक्त करने के लिए इससे सरल शब्द योजना और क्या होती ? अत: निश्चित रूप से यह बात कही जा सकती है कि सगुण-निर्गुण, सत्-असत्, द्वन्द्व-निर्द्वन्द्व की सारी पगडण्डी को साफ़ कर आचार्यजी ने शुद्ध चेतना की उपासना का मार्ग 'मूकमाटी' द्वारा सर्व साधारण के लिए प्रशस्त कर दिया है।
पृ. 2. लज्जा यूपट में.....
... ओटदेतीहै। लो!... रघर....! ........ अनहोनीसीयांना