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मूकमाटी-मीमांसा :: 463
यहाँ तो कवि ने ईश्वर को ही पागल कुम्हार कहा है । मिट्टी, पानी, हवा सब मिलाकर कालचक्र की गति पर आकार देकर जीवन कुम्भ का निर्माण किया जाता है।
कवि कुसुमाग्रज की कई कविताएँ इस विषय को लेकर हैं (मिट्टी और आकार)। इन कविताओं का एक सूत्र है । पृथ्वी तत्त्व को आकाश तत्त्व का आकर्षण इसका मूल है। मिट्टी सर्व साधारण व्यक्ति की प्रतिनिधि है, जब कि आकाश भव्य-दिव्य और उदात्त भावनाओं का प्रतीक है :
"माती चे पण तुझेच हे घर/कर तेजोमय बलमय सुंदर।" जो हमारा है वह मिट्टी का है और जो मिट्टी का है वह हमारा है । हमें हमको ही बनाना है यानी अनगढ़ को गढ़ना है । बाहरी साधनों से अन्दर की चेतना को सँवारने वाली बात आचार्यजी 'मूकमाटी' द्वारा समझाना चाह रहे हैं। बिना किसी आडम्बर के जैसे वह स्वयं निस्वार्थी, निरामय भाव से अपना जीवन जी रहे हैं। मोह-माया को ही अपना जीवन समझने वाले के लिए उन्होंने कहा है :
"बाहरी क्रिया से/भीतरी जिया से/सही-सही साक्षात्कार
किया नहीं जा सकता। और/गलत निर्णय दे/जिया नहीं जा सकता।" (पृ.३०) जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर को सृष्टि का निर्माता नहीं माना गया है। यदि उसे अशरीरी मानें तो यह सम्भव नहीं है । अत: विचारकों का प्राय: यही मत है कि ईश्वर मुक्तावस्था छोड़ कर फिर शरीर धारण कर सृष्टि का निर्माण करता है, लेकिन यह सम्भव नहीं है क्योंकि यदि सृष्टि ईश्वर निर्मित होती तो उसमें इतनी असमानता, ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, जन्म से ही कुरूप-सुन्दरता सम्भव नहीं है।
यदि ईश्वर के सशरीर अस्तित्व को माना जाए तो संसार के अस्तित्व को मानना भी अनिवार्य है और संसार के अस्तित्व को मानते हैं तो सिवाय दु:ख के संसार में क्या है ? ईश्वर तो सभी दुःखों से ऊपर है, इसलिए ईश्वरत्व संसार में सम्भव नहीं। हाँ, संसारी के द्वारा साधना के बल पर ईश्वर अवश्य बना जा सकता है । इसीलिए स्वामीजी ने कहा है :
“ओर-छोर कहाँ उस सत्ता का ?/तीर-तट कहाँ गुरुमत्ता का ?" (पृ. १२९) पूरे महाकाव्य में साधना और परिश्रम पर बल दिया गया है। कहीं भी आलस्य, अधीरता, लोभ आदि को स्थान नहीं है। वैसे तो हमारे यहाँ सभी भाषाओं में सन्त काव्य का बाहुल्य है। फिर मिट्री और मानव का सम्बन्ध भी उतना ही प्राचीन है जितनी प्राचीन सृष्टि । तभी तो कबीरदासजी ने कहा है :
"माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौदै मोय ।
इक दिन ऐसा आयगा मैं रौंदूंगी तोय ॥" मराठी में सन्त काव्य की एक ओघवती धारा प्रवाहित हुई है । सन्त ज्ञानेश्वर, जिन की 'ज्ञानेश्वरी' आज भी सम्माननीय और गीताभाष्य का आदर्श उदाहरण है, सन्त तुकाराम की गाथा, फिर नामदेव, जनाबाई आदि के काव्य भक्तिरस पूर्ण एवं गेय हैं।
हिन्दी में तो सूर, तुलसी, मीरा, कबीर आदि भक्ति-काल की अलौकिक देन हैं। निस्सन्देह भक्ति की यह धारा प्रत्येक काल में मनुष्य को अपने रस से प्लावित करती आई है, लेकिन हमेशा से ईश्वर के सगुण और निर्गुण होने का दावा अपने-अपने काव्य में भक्तों ने किया है।