________________
गहन दर्शन का सरल काव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. (श्रीमती) सन्ध्या भराडे 'मूकमाटी' महाकाव्य कई अर्थों में निराला है या इस काव्य की व्याख्या यदि हमें एक वाक्य में करनी हो तो हम यह कह सकते हैं कि यह गम्भीर विषय पर लिखा गया सरल काव्य है।' दर्शन विषय अपने आप में इतना बोझिल है कि जहाँ तत्सम्बन्धी लेख पढ़ने के लिए भी एक विशेष मानसिकता की आवश्यकता होती है, वहाँ काव्य की विधा में तत्त्वज्ञान को स्वीकार करना बहुत दूर की बात है। फिर भी आचार्य विद्यासागरजी ने इस दुष्कर कार्य को साधारणों तक पहुँचाने का प्रयास 'मूकमाटी' के द्वारा किया है।
चार खण्डों में विभक्त काव्य द्वैत से अद्वैत की ओर धाराप्रवाह बह रहा है और गतिमानता शब्दों को नए-नए अर्थों का जामा पहनाकर हमारे सामने रखती है । जहाँ आराध्य शुद्ध चेतना है वहीं आराधना निर्लिप्तता है।
लेखक ने यह लिखने का अधिकार उस पथ पर चलकर अर्जित किया है जिस पर चलने के लिए सारी अहंमन्यता और ऐहिकता को कपड़ों सहित उतारकर दूर रख देना होता है, फिर कभी न ओढ़ने के लिए।
__ जीवन कुम्भ को मंगल कुम्भ में परिवर्तित करने के प्रयास ही 'मूकमाटी' के शिलालेख हैं। मिट्टी में मिले कंकर-पत्थर साफ़ कर, मिट्टी भिगोना, रौंदना और लोंदा तैयार करना, आकार देना, उसे तपाना--यही प्रक्रिया जीवन के सन्दर्भ में खरी उतरती है। हमारे अहम्, भोग, लिप्सा के कंकर दूर करना और क्षमा, शान्ति से जीवन को भिगोना है। हमारी लालसा और अज्ञान को रौंदकर जीवन को आकार देना है। साधना के चाक पर चढ़ाकर तपस्या की गर्मी में तपाने से जीवन के कुम्भ को 'मंगल कलश' का आकार देना है। हिन्दी साहित्य का इतिहास देखें तो आदिकाल में हमें जैन आचार्यों की रचनाएँ मिलती हैं।
___सन्त काव्य से 'मूकमाटी' की तुलना कर देखा जाए तो मराठी सन्त ज्ञानेश्वर' के आदिशक्ति के प्रति विचार हमें बताते हैं :
"किं बहुना सर्व सुखी, असि जो ती ही लोकी
भजी जो आदि पुरुषी हो आवे जो।" यहाँ 'तत् त्वमसि' के भाव साकार हुए हैं जो 'मूकमाटी' के मूलभूत सिद्धान्तों के समकक्ष हैं। समर्थ रामदास अपने ग्रन्थ 'दासबोध' (दशक आठ-समास ५, ओळी ९-१०) में कहते हैं :
"नाना रचना केली देवी । जे जे निर्मिली मानवीं । सकळ मिळोन पृथ्वी । जाणिजे श्रोती ॥ आतां असो हे बहुवस । जडांश आणी कठिणांश ।
सकळ पृथ्वी हा विश्वास । मानिला पाहिजे ॥ प्रकृति निर्मित एवं प्राणी निर्मित सब कुछ पृथ्वी है और जो भी हमारे यहाँ अचेतन, चेतन है, वह सब पृथ्वीमय है। मिट्टी की महिमा सभी सन्तों ने स्वीकारी है । इसी सन्दर्भ में मराठी कवि ग.दि. माडगुळकर कहते हैं :
"माती, पाणी, उजेड वारा,/तूच मिसळशी सर्व पसारा फिरत्या चाकावरती देसी/मातीला आकार, तू वेडा कुंभार..."