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"लघु होकर गुरुजनों को / भूलकर भी प्रवचन देना महा अज्ञान है दु:ख-मुधा । " (पृ. २१८ )
मूकमाटी-मीमांसा :: 441
कृतघ्न होना । तुच्छ होकर अपने गुरुओं को अनजाने में भी उपदेश देना अपने आपको अन्धकार में ढकेलना है, दु:खों को आमन्त्रण देना है। यह ठीक उसी प्रकार है जिस तरह एक महाअज्ञानी होता है ।
" हिंसा की हिंसा करना ही / अहिंसा की पूजा है “प्रशंसा ।” (पृ. २३३)
शान्तिप्रिय होना । हिंसा को हिंसा रूप में न अपनाकर उसकी समाप्ति करना ही अहिंसा के मार्ग का प्रशस्त होना है | अहिंसा से ही मानवता का सर्वांगीण विकास सम्भव है । यहाँ पर विद्वान् लेखक ने आज की प्रमुख धारणा निरस्त्रीकरण पर बल दिया है ।
"महापुरुष प्रकाश में नहीं आते / आना भी नहीं चाहते, प्रकाश-प्रदान में ही/उन्हें रस आता है।” (पृ.२४५)
महापुरुष तो स्वयं प्रकाश होते हैं, जीवन ज्योति देते हैं । उनको मानवीय मूल्य स्थापित करने में आनन्द आता है । वे स्वयं को प्रकाशित नहीं करते। यह ठीक उसी प्रकार है जिस तरह सूर्य पूरी प्रकृति को प्रकाश देता है।
" जिसकी कर्तव्य निष्ठा वह / काष्ठा को छूती मिलती है
उसकी सर्वमान्य प्रतिष्ठा तो / काष्ठा को भी पार कर जाती है। " (पृ. २५८) जो व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों में सर्वस्पर्शी है वह लोकप्रिय होता है। उसकी लोकप्रियता सर्वांगी होती है । "जल और ज्वलनशील अनल में / अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर- दृष्टि में ।” (पृ. २६७)
सच्चा साधक क्रोध और करुणा की भूमियों पर समदर्शी होता है ।
" निर्बल-जनों को सताने से नहीं, / बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है।" (पृ. २७२ )
बलवानों का बल तभी सार्थक सिद्ध होता है जब कि वे निर्बलों को न सताएँ तथा बल को अधिक सुदृढ़ बनाएँ । इस सम्बन्ध में कबीरदासजी ने कहा है : "दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय । मुई खाल की धोंकनी, सार भ हो जाय ।
" अपनी कसौटी पर अपने को कसना / बहुत सरल है, पर सही-सही निर्णय लेना बहुत कठिन है।" (पृ. २७६)
स्वार्थपरता होना । अपने आपको सफल सिद्ध करना प्रत्येक मानव के लिए बहुत सरल है किन्तु उचित और मानवीय मूल्यों पर निर्णय लेना अत्यधिक कठिन है । यह कोई साधारण मानव का कार्य नहीं अपितु महापुरुष ही ऐसा कर सकने में सक्षम है ।