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440 :: मूकमाटी-मीमांसा इन्द्रियों को वश में रखना ही सच्चा सुख है । अहंकार मृत्यु है तथा सुख की समाप्ति है।
"आघात मूल पर हो/ द्रुम सूख जाता है,
दो मूल में सलिल तो"/ पूरण फूलता है।" (पृ. १२५) आधार की रक्षा आवश्यक है । उसके बिना प्रासाद का निर्माण सम्भव नहीं। समाज का प्रासाद भित्ति पर आधारित होता है, अत: भित्ति की सुदृढ़ता के साथ रक्षा होनी चाहिए। जड़ में पानी दोगे तो वृक्ष फूलेगा, फलेगा किन्तु आघात करोगे तो नष्ट हो जाएगा।
"पूरा चल कर/विश्राम करो।” (पृ. १२९) कार्य निष्पत्ति । अभिप्राय यह है कि जब तक कार्य में सफलता न मिल जाए तब तक ठहरना नहीं चाहिए। भले ही कितने ही व्यवधान क्यों न आएँ, तभी परिश्रम सफल होता है । शाब्दिक अर्थ के रूप में कहा जा सकता है यात्री को अपनी यात्रा पूर्ण करके ही विश्राम करना उचित है । यदि वह ऐसा नहीं करता तो पुन: यात्रा में वे ही कठिनाई फिर उपस्थित होंगी जिससे परिश्रम निष्फल जाएगा।
"रुद्रता विकृति है विकार/समिट-शीला होती है,
भद्रता है प्रकृति का प्रकार/अमिट-लीला होती है।" (पृ.१३५) क्रोध मानव जीवन को विकृत, मलिन तथा विनष्ट कर देता है । शिव तत्त्व ग्राह्य तथा अमर रहता है।
"परमार्थ तुलता नहीं कभी/अर्थ की तुला में।" (पृ. १४२) विरोधाभास । परोपकार को कभी भी धन के समकक्ष नहीं लाया जा सकता है । परोपकार, परहित अथवा जनहित का स्थान धन से अत्यधिक ऊँचा है।
“अपना ही न अंकन हो/पर का भी मूल्यांकन हो।" (पृ.१४९) परोपकारी भावना का विकास । मनुष्य को केवल आत्मकेन्द्रित नहीं होना चाहिए । अन्य मनुष्य के हितों का भी पालन करना चाहिए । मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करना जनहित में नहीं है । इसलिए स्वयं के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के हित में ही उसका विकास निहित है।
"सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है।” (पृ. १६०) दृढ़ता धारण करना । प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है। वह सभी रसों का आस्वाद करता है। इन सब रसों में शान्त रस सर्वोपरि है। इस सम्बन्ध में यह कहना समीचीन होगा कि सभी महापुरुषों ने 'शान्ति' के मार्ग का अनुसरण किया है।
"पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है।"(पृ. १८९) अज्ञानता तथा विनाश का आधार परावलम्बी बनना है । यह सूक्ति आधुनिक राजनैतिक तथा व्यापारिक युग में सटीक तथा सार्थक सिद्ध होती है ।