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मूकमाटी-मीमांसा :: 439
"संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है ।" (पृ.५६-५७) शान्त, संयमी होना । इस भौतिक संसार में संयम रखकर ही जीवनयापन करना अच्छा है । इस तरह का जीवनयापन करना अपने आपको हीरे के समान प्रसिद्धि के पथ पर पहुँचाना है।
"सहधर्मी सजाति में ही/वैर वैमनस्क भाव
परस्पर देखे जाते हैं !" (पृ. ७१) मतभेद होना । समलिंगी जीवनों में मतभेद अधिक होता है। जैसे कि श्री आचार्यजी ने भी कुत्तों का उदाहरण दिया है । यही मानव की प्रकृति है कि वह आपस में एक-दूसरे के प्रति घृणा का भाव प्रकट करता है। साथ ही दूसरे की बुराई कर अपने आपको बड़ा सिद्ध करने की अभिलाषा रखे हुए है । परिणामस्वरूप आपसी बैर इस प्रकार होता है जैसा कि वर्तमान में देश या समाज आतंकवाद, उग्रवाद से ग्रसित है।
"प्रत्येक व्यवधान का/सावधान होकर
सामना करना/नूतन अवधान को पाना है ।" (पृ.७४) ___ दृढ़संकल्पी होना । मानव को जीवन में सभी समस्याओं का सावधानी से सामना करना चाहिए। सफलता भी तभी मिलती है। ऐसा जीवनयापन एक नए लक्ष्य की प्राप्ति का परिचायक है।
"दोषों से द्वेष रखना/दोषों का विकसन है
और/गुणों का विनशन है।" (पृ.७४) जो व्यक्ति सदैव दोष दर्शन में विश्वास करते हैं वे संस्कारवश अपने व्यक्तित्व को द्वेषमय बना लेते हैं और उनकी प्रवृत्ति अच्छाइयों से हटकर बुराइयों की ओर बढ़ जाती है।
"सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है...
सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है...।" (पृ. ८३) विद्वान् आचार्यजी ने इन सूक्तियों में सत्युग और कलियुग को परिभाषित किया है । सत्य के प्रति आस्था तथा समर्पित भावना सत् (सत्य) युग है तथा असत्य के प्रति अनुराग तथा आकर्षण कलियुग है।
"पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।" (पृ.९३) जो व्यक्ति प्रकृति के परिवर्तन के साथ-साथ उसमें समाहित रहता है वह मन, वचन तथा शरीर आदि सभी से स्वस्थ रहता है । यही तो मोक्ष है और यही जीवन का सार है।
"कभी कभी फूल भी/अधिक कठोर होते हैं/"शूल से भी।" (पृ. ९९) ___ आचार्यजी के अनुसार फूल का अर्थ काम भावना तथा शूल का अर्थ रक्षा के उपकरणों से है । अत: रक्षा के उपकरण भले ही घातक हों परन्तु वे कामुक प्रवृत्ति से पृथक् समाज के लिए श्रेयस्कर होते हैं।
"दम सुख है, सुख का स्रोत/मद दुःख है, सुख की मौत !" (पृ. १०२)