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436 :: मूकमाटी-मीमांसा सन्दर्भ में रविदासजी ने भी कहा है : “मन चंगा तो कठौती में गंगा'- अर्थात् मन स्वतन्त्र है। उसको जैसा चाहो, वैसा ही होगा।
“आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव ।
तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव !" (पृ. १३३) स्वस्थ स्वास्थ्य । यह एक आयुर्वैदिक सूत्र है तथा लम्बी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए तथ्य है । यदि कोई मनुष्य भरपेट भोजन न करके अल्पाहारी हो और भोजन की अपेक्षा पानी दुगुना पीए, भोजन के अनुपात से परिश्रम तिगुना करे और सदैव प्रसन्न रहे अथवा भोजन के अनुपात में चौगुना हँसता रहे, तो ऐसा मनुष्य निश्चित रूप से दीर्घायु होगा। यह एक निर्विवाद सत्य है।
"आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का।
कूबत कम गुस्सा ज्यादा/लक्षण है पिट जाने का।" (पृ. १३५) अपनी मूर्खता का परिचय देना है। यदि आय कम है और व्यय अधिक किया जाय तो मानव का सर्वस्व समाप्त हो जाता है तथा यदि व्यक्ति की कार्यक्षमता कम है और अकारण गुस्सा अधिक करता है तो समाज में उसके पिटने का भय बना रहता है, जो कि मानवीय जीवन के लिए अनुचित है । तात्पर्य यह है कि मानव को अपनी क्षमता से अधिक नहीं चलना चाहिए।
"संसार ९९ का चक्कर है।" (पृ. १६७) मनुष्य स्वावलम्बी है। इस संसार के प्रत्येक मनुष्य की अत्यधिक आकांक्षा रहती है । वह प्रत्येक समय भोगलिप्सा में लिप्त रहता है । अधिक से अधिक धन, ऐश्वर्य एकत्र करने का प्रयत्न करता है। आचार्यजी ने इस सन्दर्भ को दो-तीन पृष्ठों में विश्लेषित किया है।
“आना, जाना, लगा हुआ है।" (पृ. १८५)
जीवन-मृत्यु । इस सूक्ति में आचार्यजी ने सांसारिक प्रवृत्ति पर महत्त्व डाला है। इस भौतिक संसार में आना-जीवन प्राप्त करना, जाना-मृत्यु प्राप्त करना और शाश्वत-चिरन्तन है । जीवन-मृत्यु का क्रम है । दूसरे अर्थों में उसकी प्राप्ति-समाप्ति समाज की व्यवस्था है।
"सत्य-धर्म की जय हो!" (पृ. २१६) सत्य अमर है, अमिट है । प्रत्येक धर्म ने सत्य को ग्रहण किया है । सत्य एक ऐसा मापदण्ड है जिसमें सम्पूर्ण मानवता का कल्याण निहित है । इसीलिए कहा भी गया है “सत्यमेव जयते' । वास्तविकता भी यह है कि सदैव सत्य विजयी होता है।
"लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन ।" (पृ. २१७) आज्ञा पालन न करना। यह सूक्ति भी चिरन्तन है । जिसने भी आज्ञा का अनुपालन नहीं किया है वह असफलता का कालग्रही बना है। यह एक ऐसा मापदण्ड है जिसको यदि न ग्रहण किया जाए तो व्यक्तिगत रूप से भी वह अनुचित