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________________ 'मूकमाटी' : सन्त की अन्तरात्मा का प्रस्फुटन आचार्य गणेश शुक्ल 'मूकमाटी' महाकाव्य की रचना हिन्दी साहित्य में एक अनुपम उपलब्धि है । यह कविकर्म एक ऋतम्भरा प्रज्ञावान् सन्त की अन्तरात्मा का प्रस्फुटित रूप में प्रस्तुत किया गया है । यद्यपि यह काव्यकृति महाकाव्य की सीमा में समाहित की जा सकती है, इसमें अत्युक्ति नहीं होगी, फिर भी इस विधा के मर्मज्ञों द्वारा आलोच्य विषय हो सकता है। प्रस्तुत कृति के आरम्भ में कुमुदिनी, कमलिनी, चाँद, सितारे, सुगन्ध पवन, सरिता तट और इसके अतिरिक्त अन्य समस्त प्राकृतिक परिदृश्य इस बिन्दु पर दार्शनिक रूप से केन्द्रीभूत हो जाते हैं। - महाकाव्य की अपेक्षाओं के अनुरूप प्राकृतिक वातावरण के अतिरिक्त अन्य पक्ष भी संकलित किए गए हैं। इसमें कुम्भकार को नायक तथा माटी को नायिका के रूप में उजागर किया है। काव्य में शब्दालंकार तथा अर्थालंकारों की छटा पदे-पदे चित्ताकर्षक है। रचनाकार ने शब्द की व्युत्पत्ति तथा उसके तात्त्विक अर्थ का बोध बड़े ही रोचक रीति से कराया है। कुम्भकार माटी को मंगल कलश का रूप देना चाहता है। उसके लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि माटी को खोदकर, उसे कूटछानकर उसमें से कंकरों को निकाल दिया जाए, क्योंकि माटी तो वर्ण संकर है और उसमें विपरीत तत्त्व कंकर आ मिले ग्रन्थकर्ता ने तीसरे भाग में मनसा-वाचा-कर्मणा शुभ कर्मों के द्वारा लोकहित भावना से पुण्यार्जन किया है तथा यह भी प्रतिपादित किया है कि लोभ, मान, क्रोध, माया तथा मोह से ग्रसित होकर मानव पापकर्मा हो जाता है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थकार ने स्वर्णकलश और आतंकवाद को आज के जीवन जगत् के ज्वलन्त निदर्शन रूप में प्रस्तुत किए हैं। इसके समाधान के लिए आधुनिक व्यवस्था के विश्लेषणों द्वारा प्रस्थापित किया है । यह अत्याश्चर्य है कि सामाजिक दायित्व का उद्बोधन मत्कुण एवं मच्छर के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। उसका उदाहरण अधोलिखित है जिसमें मत्कुण सेठ से कहता है : "सूखा प्रलोभन मत दिया करो/स्वाश्रित जीवन जिया करो, कपटता की पटुता को/जलांजलि दो !/गुरुता की जनिका लघुता को श्रद्धांजली दो !/शालीनता की विशालता में/आकाश समा जाय और/जीवन उदारता का उदाहरण बने !/अकारण ही पर के दुःख का सदा हरण हो !" (पृ. ३८७-३८८) काव्यकार की कृति आधुनिक मानव जीवन की अध्यात्मपरक एवं सामाजिक शिक्षाप्रद उपलब्धि है । पाठकवृन्द निश्चितमेव सर्वतोभावेन लाभान्वित होंगे, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। पृ. ३७ इनसेटी फलता-फलतारैग 'आरोग्मका विशालकाय वृक्ष!
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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