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अपने अस्तित्व को पहचान सकें, / कहीं भी गिरी हो ससूत्र सुई सो/ कभी खोती नहीं ।" (पृ. ३४४)
मूकमाटी-मीमांसा
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पाठक को बार-बार यह अनुभव होता है कि यही चिन्तन काव्य पर सवार होकर आया है। बौद्धिकता की बहुलता एवं अतुकान्त काव्य शैली के कारण इसे नई कविता का महाकाव्य कहा जा सकता है।
जहाँ तक शिल्प का प्रश्न है, छायावादी कवि पन्त के बाद हिन्दी में इतने नए शब्दों का सृजन अथवा प्रयोग पहली बार हुआ है - भंगायित, स्वीकारता, स्वादकता, विरागता, निराशता जैसे अनेक विचित्र शब्द ग्रन्थ में अनेक बार प्रयुक्त हुए हैं परन्तु कवि ने मछली, काँटा, गदहा, स्वर्ण कलश, मंगल घट आदि प्रतीकों के माध्यम से भाषा को नया आलोक जल भी दिया है।
कवि के सामने व्याकरण अनेक स्थानों पर विवश प्रतीत होता है- अपनी पराग, सरगम झरती है, चेतन आत्मा खरा उतरेगा, हमारी उपास्य देवता अहिंसा है, उनकी पाद-पूजन जैसे लिंगदोष युक्त अनेक प्रयोग हैं । कवि ने कुछ शब्दों को तोड़कर जैसे 'कम्बल वाले कम बलवाले, कायरता - काय रता, धोखा दिया -धो खा दिया' तथा कुछ शब्दों को उल्टा कर जैसे- 'राख- खरा, राही - हीरा, लाभ- भला' आदि से नया अर्थबोध देने का यत्न किया है, परन्तु यह सायास प्रयास नई अर्थवत्ता के स्थान पर शब्दों के साथ किया गया खिलवाड़ लगता है।
कहीं-कहीं पर तथ्यात्मक गलतियाँ भी हैं। गुरु के स्वागत के समय सीताफल और रामफल एक साथ दिखाए गए हैं। दोनों फल एक ऋतु में नहीं होते। सीताफल शीत ऋतु में होता है जबकि रामफल ग्रीष्म ऋतु में होता है । फिर भी महाकाव्य के क्षेत्र में यह एक नया प्रयोग है । इसका स्वागत किया जाना चाहिए ।
['नया खून' (हिन्दी दैनिक), नागपुर - महाराष्ट्र, १३ नवम्बर, १९९१ ]
मन्द मन्द सुगन्ध पवन बह रहा है; बहना ही जीवन है
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