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________________ 418 :: मूकमाटी-मीमांसा है जिस तरह की एक साधारण व्यक्ति को । अत: कुम्भ का जीवन-दर्शन एक व्यक्ति के जीवन दर्शन से भिन्न नहीं है। कुम्भ को जीवन में अन्य वस्तुओं और विचारों से उतने ही सम्पर्क आते हैं जितने कि एक मनुष्य को। अत: यह स्पष्ट होता है कि 'मूकमाटी' सामाजिक चेतना का महाकाव्य है। धर्म, दर्शन, अर्थशास्त्र, विज्ञान, नीति, सौन्दर्य आदि सभी अनुशासनों का मुख्य उद्देश्य सामाजिक मनुष्य को सम्पन्न, सुखी बनाना और उसकी समस्त क्षमताओं को पूर्णता की ओर ले जाना है । धार्मिक आचार हो या अर्थशास्त्रीय चिन्तन का सामाजिक व्यवहार, सभी का उद्देश्य है स्व से पर की ओर प्रगति । इसमें न तो स्व अपना अस्तित्व खोता है न ही पर वायवी या काल्पनिक रहता है । स्व का दायरा बढ़ते-बढ़ते पर भी उसमें समा जाता है । जीव और ब्रह्म में अन्तर नहीं रहता। पर्यायों व कषायों से जीव मुक्त होकर शुद्ध आत्म-स्वरूप हो जाता है। जीव और आत्मा के बीच माया का परदा हामाको इप्तमीदव सत्सं लिगा तैतिातिगत समाज और विचार व आचार कोई भी शुद्ध नहीं रह पाते। अत: जीव-शुद्धि का अर्थ व्यक्ति एवं समाज-शुद्धि तथा विचार व आचार की परिष्कृति होता है। जैसे-जैसे जीव शुद्ध होता है, उसमें व आत्मा में भेद कम होता जाता है। __आचार्य विद्यासागरजी की दृष्टि इतनी सूक्ष्मदर्शी एवं व्यापक है कि विचार व आचार का कोई सा भी क्षेत्र उनके मानव-केन्द्रित चिन्तन से नहीं बचता । एक सम्प्रदाय के आचार्य के रूप में धार्मिक विचार व आचार के प्रत्येक पक्ष को अत्यन्त ही सरल व सुबोध काव्यात्मक भाषा में स्पष्ट कर दिया है । लेकिन एक चिन्तक, सम्प्रदाय का होकर भी, सत्य और शुभ का सतत अन्वेषी होने के कारण सम्प्रदायातीत हो जाता है । कुम्भ का जल प्यासे के लिए है, न कि धनिक-निर्धन, विद्वान्-मूर्ख या जैन-अजैन के लिए । कुम्भ का जल प्राप्त करने की पात्रता प्यासे में है । प्यास सभी प्रकार के भेदों से ऊपर है। भेद व्यक्ति, परिस्थिति और समाज ने उत्पन्न किए हैं। और यही भेद-दृष्टि मानवता के लिए पीड़ादायक है। 'मूकमाटी' का नव्य अर्थशास्त्र : सन्त की सत्य-दृष्टि से समाज के दोषपूर्ण विचार व आचार बच नहीं सकते । यह सोचना कि सन्त असंग और विरागी है और उसका संसार से क्या लेना-देना ? लेकिन आध्यात्मिक सत्य इसके विपरीत है। आचार्य बलदेव उपाध्याय का कथन है : “कैवल्य प्राप्त कर लेने पर जीव इस भूतल पर निवास करता हुआ समाज में परम मंगल के सम्पादन करने में लगा रहता है । वह अपने आदर्श चरित्र से मनुष्य-मात्र के हृदय में दुःख-निवृत्ति के लिए आशा का संचार करता रहता है" ('भारतीय दर्शन', पृ. १७०)। इसी कारण सन्त की दृष्टि व्यापार, धन, मूल्य, बाजार, विवाह, न्याय-अन्याय व सुख-दुःख की ओर जाती है । वह तो मुक्त है, इसी कारण अन्य को मुक्त करने का मार्ग बता सकता है : “परीक्षक बनने से पूर्व/परीक्षा में पास होना अनिवार्य है, अन्यथा/उपहास का पात्र बनेगा वह ।” (पृ.३०३) । संसार के अधिकतम व्यवहार और मनुष्य के सुख-दुःख धन-उपार्जन की कामना पर केन्द्रित हैं । आचार्यजी का कथन है: "चेतन भूलकर तन में फूले/धर्म को दूर कर, धन में झूले... धन कोई मूलभूत वस्तु है ही नहीं/धन का जीवन पराश्रित है पर के लिए है, काल्पनिक !" (पृ. ३०७-३०८)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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