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'मूकमाटी': सामाजिक चेतना का महाकाव्य
डॉ. ब्रजबिहारी निगम मूकमाटी में जब स्पन्दन होता है तब प्राणों का संचार होता है। प्राण जब परिवेश से नाता जोड़ते हैं तब मन, अहंकार और बुद्धि का विकास होता है । और, जब ये तत्त्व सरल चित्त और सहृदय मनुष्य में प्रवेश पाते हैं तब सत्यं, शिवं और सुन्दरम् के मूल्य अभिव्यक्त होने लगते हैं। इन मूल्यों का सम्बन्ध दृष्टि (विचार) से कम, मनुष्य और मानव-सृष्टि (आचार) से अधिक है। जीवन में इन मूल्यों की अवतारणा सीमा (शरीर) में निस्सीम होने की अनुभूति प्राप्त करने का प्रयास है । वस्तु वही रहती है, लेकिन उसके प्रति दृष्टि और आचरण में अन्तर आ जाता है । मूल्य-साधना में जीव पर्याय, कषाय और आवरणों में से क्रमश: मुक्ति की ओर बढ़ता है।
यह विज्ञान का नियम है कि जो वस्तु जितनी कम भार की होती है उतनी ही अधिक ऊपर जाती है। इसी तरह जीव को मोह-माया के वजन से जितने-जितने मुक्त करते जाएँगे उतनी-उतनी हमारी ऊर्ध्वगति होती जाएगी। कुम्भ जब पक कर तैयार हो जाता है तब उसमें जल भरने की क्षमता आ जाती है, यही कुम्भ की मूल्य-दृष्टि है । जब यही दृष्टि प्यासे की प्यास बुझाने की ओर जाती है, तब प्रत्येक प्यासे आदमी के लिए वही कुम्भ आदर का पात्र हो जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों में भी सर्वप्रथम कुम्भ में जल भरके, उसकी पवित्र स्थान पर प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। संकेत यही है कि माटी कुम्भ रूप में अवतरित होने के लिए कुम्भकार (गुरु) के निर्देशन में तपस्या प्रारम्भ करती है तब उसे कुम्भ रूप मिलता है । यह तपस्या ही मूल्य-साधना है। इसी साधना की प्रक्रिया में उच्च विचार, आचार, धर्म, परोपकार, सुख, आनन्द आदि का उद्भव होता है । मनुष्य जितना व्यक्तिगत सुख-दुःखों के द्वन्द्व से मुक्त होता है उतना ही वह मानव मात्र के लिए चिन्ता करने लगता है । जिस तरह कुम्भ की कृतार्थता प्यासे की प्यास बुझाने में है, उसी तरह मूल्य-साधक की कृतार्थता दूसरों के दुःख दूर करके उन्हें आनन्द मार्ग का राही बना देने में होती है।
आचार्य विद्यासागरजी ऐसे ही मूल्य-साधक हैं जो नग्न इसलिए हैं कि हर नंगे को वस्त्र पहना देख सकें । उनका मिताहार या निराहार स्वर्ग-प्राप्ति के लिए नहीं, वरन् इसलिए है कि प्रत्येक भूखे को भरपेट भोजन मिल सके। उनके भवन की छत आकाश है और दिशाएँ दीवारें हैं। इस अनन्त क्षेत्र में वे बिना भेद-भाव के प्रत्येक दुःखी व जिज्ञासु को अज्ञान से मुक्ति, साधना का मार्ग और दिव्य-दृष्टि प्रदान करते हैं। ऐसे मनीषी को जाति, सम्प्रदाय, सांसारिक मोहमाया व दुःख-सुख के द्वन्द्व में बाँध नहीं सकते। उनके ही शब्दों में :
"जो मोह से मुक्त हो जीते हैं/राग-रोष सेरीते हैं/...शोक से शून्य, सदा अशोक हैं
...जिनके पास संग है न संघ,/जो एकाकी हैं !" (पृ. ३२६-३२७) यहाँ एकाकी का अर्थ मुक्ति की कामना से एकान्त में बैठे किसी व्यक्ति से नहीं, वरन् ऐसे कर्मठ योगी से है जिसका प्रत्येक पल मानव-कल्याण में व्यतीत हो रहा है । समत्व-भाव की दृष्टि जब व्यवहार में आती है तब मनुष्य-मात्र उसके मन, वचन और कर्म के लक्ष्य हो जाते हैं। वह एकाकी अर्थात् अकेला नहीं है, सारा संसार उसमें प्रतिबिम्बित होता है और धीरे-धीरे उसका बिम्ब भी मनुष्य महसूस करने लगते हैं। वह 'एक' ऐसा है जिसमें शेष-सृष्टि का बहुत्व समाहित है।
_ 'मूकमाटी' आचार्य विद्यासागरजी का अन्योक्ति-परक महाकाव्य है। कुम्भ व कुम्भकार इसके प्रमुख प्रतीकात्मक पात्र हैं । कुम्भ की यात्रा मूकमाटी से मुखर-महामानव तक चलती रहती है । कुम्भकार अर्थात् गुरु प्रकाश-पुंज मार्गदर्शक है । कुम्भ को कठोर तपस्या के बाद भी जगत्-हित की कसौटी पर एक सन्त की तरह खरा उतरना पड़ता है। उसे मूक होते हुए भी जागतिक व्यवहार में आने वाले सभी सम्पर्क-सम्बन्धों में अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करना पड़ती