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________________ 416 :: मूकमाटी-मीमांसा कुम्भ का शरीर धारण कर लिया, केवल मौन ही रही। माटी खोदने से लेकर कुम्भ के निर्माण तक की प्रक्रिया ही उसके अमरत्व की साधना है । यह इस सत्य को उद्घाटित करता है कि लौकिक जीवन जीने वाला व्यक्ति भी ईश्वरीय सत्ता से युक्त हो सकता है, यदि उसमें तपने की क्षमता हो । केवल साँचे में ढला कुम्भ का साँचा अग्नि से जो कहता है, वही उदाहरण पर्याप्त है । उपर्युक्त कथन के प्रमाण हेतु देखें : "मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है / स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने // दोष अजीव हैं, / नैमित्तिक हैं, / बाहर से आगत हैं कथंचित्; / गुण जीवगत हैं, / गुण का स्वागत है।/ तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से,/ इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुम से / मुझ में जल-धारण करने की शक्ति है/ जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, / उसकी पूरी अभिव्यक्ति में / तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है" (पृ. २७७)। विषय को स्पष्ट और विभिन्न उदाहरणों से स्पष्ट करने के लिए कवि ने कई पात्रों की वार्ताओं को काव्यात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है- कुम्भकार की कुम्भ से वार्ता, कुम्भ से निकली ध्वनियों का शास्त्रीय विवेचन, सन्त प्रवृत्ति का विशद विवेचन, उपासना के विभिन्न प्रसंगों एवं उपासना में आने वाली वस्तुओं का विशद वर्णन, मानवीय संवेदनाओं को विभिन्न निर्जीव वस्तुओं के माध्यम से वर्णन करना आदि। कभी-कभी चौथा अध्याय काव्य की रसात्मकता से भरा मिलता है तो कभी - कभी नाटकीय अभिव्यंजना भी इसमें सजीव मूर्तिमान् मिलती है। मानव जीवन की अन्तिम गति क्या है, अन्त में सन्त कवि उसे भी स्पष्ट कर देता है: “बन्धन-रूप तन, / मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है" (पृ. ४८६) । यह मोक्ष ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है । आत्मा रूपी ज्ञेय को परम गति पुरुषार्थ से ही मिल सकती है। जो व्यक्ति पुरुषार्थ के माध्यम से समस्त दुःखों को सहन करता हुआ मूकमाटी की भाँति पग-पग पर अपनी परीक्षाएँ देता हुआ तथा तन, मन और वचन के समस्त लौकिक बन्धनों को तोड़कर निरन्तर बढ़ता जाता है, उसे ही परम सुख, ऐसा सुख जो कभी भी नष्ट न होने वाला होता है, प्राप्त होता है। कवि ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में उस परम लक्ष्य की प्राप्ति के सुख को यानी पूरे महाकाव्य के सार को एक ही पंक्ति में व्यक्त कर दिया है : "इसी की शुद्ध दशा में / अविनश्वर सुख होता है/जिसे / प्राप्त होने के बाद, / यहाँ / संसार में आना कैसे सम्भव है/ तुम ही बताओ !/... इसीलिए इन / शब्दों पर विश्वास लाओ,/ हाँ, हाँ !! / विश्वास htभूति मिलेगी / अवश्य मिलेगी /मगर/ मार्ग में नहीं, मंज़िल पर ! / और / महा-मौन में/ डूबते हुए सन्त" / और माहौल को/अनिमेष निहारती - सी / मूकमाटी” (पृ. ४८६-४८८) । ... इस महाकाव्य में प्रकृति की विचित्रता का जहाँ विराट् सौन्दर्य बोध विराजमान है, वहीं पर मनुष्य की सूक्ष्म सूक्ष्मतर भावनाओं और संवेदनाओं के अनेक ऐसे प्रतीक मौजूद हैं जो काव्यात्मक रस को निरन्तर सजीव किए रहते हैं। दार्शनिक भावों में तथा आध्यात्मिक भावों में तो अनेक प्रतीक और बिम्बों के माध्यम से कवि ने अपनी बात कही है और वह काफी स्पष्ट भी है, किन्तु कहीं-कहीं ऐसा लगता है जैसे विषय के प्रवाह की धारावाहिकता टूटी भी है। ऐसे उद्धरण उस स्थान पर विशेष रूप से मिल जाते हैं जहाँ कवि ने मानवेतर प्रतीक / बिम्बों को विस्तारित करना चाहा है। ऐसा अक्सर हो भी जाता है । काव्य वह विधा है जो बड़े से बड़े फलक को छोटे से छोटे शब्दों के साँचे में ढाल दे। चूँकि इस महाकाव्य का विषय दार्शनिकता और आध्यमिकता से ओत-प्रोत है, इसलिए गूढ़ता और जटिलता का आना स्वाभाविक लक्षण है । इस महाकाव्य की प्रेरणा कितनों तक पहुँचेगी, यह तो समय ही बतलाएगा लेकिन इतना जरूर है कि यह महाकाव्य आज के सामाजिक और मानवीय परिवेश के लिए एक मूल्यवान् निधि है, जो अपने में धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक धारा को समेटे है और आज के बढ़ते अन्धकारमय युग के लिए एक प्रकाश स्तम्भ है।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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