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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 415 यजन-शीलता जगी/पक्षपात से रीता हो/न्यायपक्ष की गीता - समीता बनी...!"(पृ. २०८-२०९)। ये पंक्तियाँ व्यक्तित्व के निर्माण की सोपान हैं। इन्हीं सोपानों पर चढ़कर व्यक्ति पाप का प्रक्षालन कर सकता है। पाप का प्रक्षालन ही पुण्य का संचय है। कवि पाप-कर्म से मिलने वाले दण्ड से मानव मात्र को सचेत कर बारम्बार इस सत्य की स्थापना का प्रयास करता है कि प्रकृति के प्रतिकूल, मूल्यों के प्रतिकूल, संवेदनाओं के प्रतिकूल जब भी आचरण, व्यवहार और कर्म होंगे तो हम दण्ड के भागी बनेंगे : "लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन/रावण हो या सीता/राम ही क्यों न हों/ दण्डित करेगा ही!" (पृ. २१७) । भारतीय मिथक में लक्ष्मण-रेखा को मर्यादा से जोड़कर देखा गया है । यूँ अब तक जिसने भी लक्ष्मण- रेखा के मिथकों का कविता में प्रयोग किया, उसने सीता और रावण का ही प्रतीक अधिकांश लिया है। लेकिन मर्यादाओं की सीमा को स्वयं जीवन में निर्वाहित करने वाला कवि उस मर्यादा की सीमा उल्लंघन पर राम को दण्डित होने का संकेत देकर इस बात की पुष्टि बेबाक तरीके से करता है कि मर्यादा से जीवन का शाश्वत सत्य उजागर हो सकता है, किन्तु मर्यादा के बाहर जाने पर दण्ड से कोई भी बच नहीं सकता । सम्पूर्ण प्रकृति जिन सूत्रों से बँधी है, वही सूत्र उसकी मर्यादा है। मर्यादाहीनता ही पाप का स्वरूप है और मर्यादित जीवन ही पुण्य का संरक्षण। तीसरे खण्ड के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते कवि अपनी भावनाओं को शब्दों में ढालकर कहने के बजाय, कविता की कलात्मकता से छुटकारा पाकर सीधी सपाट भाषा में कह बैठता है : “इस लेखनी की भी यही भावना है-/कृति रहे, संस्कृति रहे/आगामी असीम काल तक/जागृत "जीवित "अजित !"(पृ. २४५)। भारतीय मनीषा की यही कामना रही है कि संस्कृति के जिस विशाल फलक पर उसने पुण्य के रूप को चित्रित किया है, जो हमारी संस्कृति की आधार शिला है, वह अनन्त काल तक जीवित रहे। संस्कृति का निर्माण मूल्यों की सापेक्षधर्मिता से होता है। यह एक दिन की प्रक्रिया नहीं है, इसमें हजारों वर्षों तक समाज को प्रवाहित होना पड़ता है। इन हजारों वर्षों की यात्रा में संस्कृति पूरे देश, काल, समाज पर आच्छादित हो जाती है । हर मनुष्य उन मूल्यों का सगुण उपासक हो जाता है । तब सांस्कृतिक धारा अबाध गति से प्रवाहित होती है जो सम्पूर्ण मानव जाति को मूल्यों का, संवेदनाओं का सन्देश देती चलती है। प्रश्न यह उठता है कवि को पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? उत्तर स्पष्ट है कि आज हमारी सम्पूर्ण सांस्कृतिक धारा दिन-ब-दिन अवरुद्ध होती जा रही है। कवि आज के परिवेश से आक्रान्त है। उसे दिखाई पड़ रहा है कि समूचा भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक परिवेश का पुराना किन्तु सशक्त महल कभी भी ढह सकता है । वह समाज, देश को सचेत करते हुए कहता है : “और सुनो !/आग की नदी को भी पार करना है तुम्हें,/वह भी बिना नौका !/हाँ ! हाँ !!/अपने ही बाहुओं से तैर कर,/तीर मिलता नहीं बिना तैरे" (पृ. २६७)। अपने मूल्यों की रक्षा के लिए हमें अब सभी संकटों का सामना करने को तत्पर रहना है, तभी हम 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' कर सकते हैं। चौथा और महाकाव्य का अन्तिम खण्ड अपने आप में बहुत विस्तार से विषयों को समेटे है । कवि अन्तिम खण्ड का शीर्षक अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' रखता है। शीर्षक ही बताता है कि इस अन्तिम खण्ड में उस अग्नि की परीक्षा होनी है जो अग्नि सबकी अग्नि-परीक्षा लेती रहती है। प्रश्न यह है कि अग्नि की परीक्षा लेगा कौन ? इसके उत्तर में जो दार्शनिक भाव छिपा है, वह यह है कि जिस माटी को कुम्भकार ने नाना प्रकार की प्रक्रियाओं से, जिसमें कुम्भ की अग्नि-परीक्षा भी निहित है, से गुजारा है, वह कुम्भ अब बनकर तैयार हो गया है । पके तैयार कुम्भ को देख कुम्भकार हर्षित है एवं उल्लास से भरा है। कुम्भकार ने एक ऐसे पात्र का निर्माण कर दिया है जो दसरों की प्यास बुझाकर र उन्हें जीवन देता है.जो पात्र अपने जल से ऋषियों.मनियों के पाँव पखार सकता है और अपने जल से उस अग्नि की दाहता भी समाप्त कर सकता है जिस अग्नि ने तपाकर उसे ऐसी पात्रता प्रदान की है। इसीलिए अब चाँदी की राखसी अमूल्य निधि हो गई है। उसकी अमूल्यता अब स्थाई हो गई है। वह कुम्भ जितेन्द्रिय हो गया है। अब उसे जो शरीर मिला है, वह उसकी तपस्या का परिणाम है । अपने सम्पूर्ण निर्माण होने तक की प्रक्रिया में वह माटी, जिसने आज एक
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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