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मूकमाटी-मीमांसा :: 419
जब चेतना की ओर मन मुड़ेगा, तब तन साधन हो जाएगा। इससे जीवन में धर्म प्रवेश करेगा और धन की आसक्ति कम होगी, धीरे-धीरे यह भी बोध होगा कि धन का कोई मूल्य या मूलभूत वस्तु नहीं है। अधिक योग्यता वाले व्यक्ति को अधिक धन दिया जाता है लेकिन सन्त अमूल्य और मूल्यहीन, क्योंकि उनका संग कुपात्र को सुलभ नहीं और सुपात्र के लिए सदा-सर्वदा सहज सुलभ । अर्थात् मनुष्य को चेतना के सहारे मूल्य बढ़ाना है । इस तरह जिस धन के पीछे संसार पागल है वह मूलभूत पदार्थ है ही नहीं, वह तो विनिमय का साधन मात्र है ।
मूल्य, उपयोगिता और धनिक का कार्य : धन कमाना (या गँवाना) बाजार और वस्तुओं के घटते-बढ़ते मूल्यों पर निर्भर है। आचार्यजी का मत है :
" वस्तु का मूल्य वस्तु की उपयोगिता है। / वह उपयोगिता ही भोक्ता पुरुष को कुछ क्षण सुख में रमण कराती है।” (पृ. ३०४)
ऐसा लगता है कि धार्मिक साधक की आत्मा से निकला वाक्य उन्नीसवीं सदी के सबसे महान् सामाजिक तपस्वी मार्क्स की अन्तरात्मा की धार्मिक प्रतिध्वनि है : " उपयोगिता की वस्तु हुए बिना कोई भी वस्तु अपना मूल्य नहीं रखती" ('कादम्बिनी', दिसम्बर '९८, पृ. ४८ ) । लेकिन वस्तु का मूल्य वस्तुओं के लेन-देन व व्यवसाय में सही-सही नहीं आँका जा सकता, क्योंकि अर्थप्रधान तन्त्र में धनिक अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक मूल्य चुका सकता है, लेकिन अधिक आवश्यकता होने पर भी निर्धन उसका मूल्य दे नहीं सकता । वस्तु की उपयोगिता मनुष्य के लिए है, प्यासा पानी का मूल्य जानता है (भले ही वह धनी हो या निर्धन ) ।
मूल्य के आर्थिक पक्ष पर विचार करने से ज्ञात होता है कि मूल्य मार्केट में वस्तुओं की उपलब्धि और माँग पर निर्भर रहता है। अधिक वस्तुओं के होने पर मूल्य कम हो जाता है और कम होने पर भाव बढ़ जाते हैं। कुशल व्यापारी इसी तेजी - मन्दी में कमा लेता है। लेकिन तेजी स्वाभाविक नहीं, कृत्रिम होती है । उत्पादन के कम होने, ठीक समय पर बाजार में माल न पहुँचने या उत्पादन अधिक होने पर धनिकों के कोठार भर लेना (ताकि कमी के समय अधिक लाभ पर वस्तु का विक्रय हो सके) तेजी आने के कारण हैं । माल का अधिक उत्पादन तथा निर्धन लोगों की क्रय-शक्ति नहीं हो मन्दी के कारण हैं । स्पष्ट है कि वस्तु का उत्पादन बाजार के लिए होता है न कि मनुष्य के लिए। मनुष्य के लिए उत्पादन होता तो वस्तु प्रत्येक ज़रूरतमन्द आदमी को मिलती। लेकिन वस्तु मिलती है केवल धनिकों को । सूर्य की रश्मि और हवा का झोंका प्रकृति ने सबके लिए बनाए हैं। वे सबके लिए आवश्यक हैं लेकिन सम्पन्न लोगों ने ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ बनाकर रोशनी व हवा का मूल्य बढ़ा दिया, क्योंकि स्वास्थ्यप्रद हवादार मकान का किराया इतना अधिक होता है कि गरीब तो ठीक, मध्यमवर्गीय व्यक्ति को भी ऐसे मकान सुलभ नहीं होते । आचार्यजी इस मन्तव्य को निम्न शब्दों में रेखांकित करते हैं :
“हाँ ! हाँ !!/ धन से अन्य वस्तुओं का / मूल्य आँका जा सकता है
वह भी आवश्यकतानुसार, / कभी अधिक कभी हीन / और कभी औपचारिक, और यह सब / धनिकों पर आधारित है ।" (पृ. ३०८)
ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यजी के शब्दों में नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन बोल रहे हैं, जिनका कथन है : "अर्थ शास्त्र का वास्ता गरीबों तथा पिछड़े वर्गों से भी है। समाज में दबे-कुचलों की तरफदारी करना अर्थशास्त्र की पहली