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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 413 के ही बराबर है। इसीलिए कवि ने कहा : “दया का होना ही/जीव-विज्ञान का/सम्यक् परिचय है"(पृ. ३७)। प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में कवि ने माटी के स्वभाव के एक-एक गुण को कुरेद कर उसे मानव मूल्य के श्रेष्ठ उपादानों से जोड़ने का सफल प्रयास किया है। ऐसा लगता है जैसे कवि ने अपनी सम्पूर्ण आत्म-चेतना को माटी के साथ सम्मिलित कर माटी के ही जीवन को स्वयं में जीने, भोगने का प्रयास किया है। दूसरे खण्ड का शीर्षक 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' दार्शनिकता से ओत-प्रोत है। भारतीय चिन्तन परम्परा में शब्द को ब्रह्म भी माना गया है । यही अनश्वर है और शब्द ही इस बात का साक्षी है कि अन्तर्जगत् में कितना पिघल चुके हैं, कितना तप चुके हैं। जो शब्द हम उच्चरित करते हैं वही हमारे भावबोध का परिचायक है। भाषा तो प्रत्येक जीव के पास है । अपने वैचारिक सम्प्रेषण का वही सर्वाधिक सशक्त माध्यम है । जीवों की भाषा उनकी ध्वनियों में है। हर जीव ध्वनि के माध्यम से अपने जातिगत जीव की भाषा को समझता है । यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जंगल के पशु किसी सम्भावित खतरे की आशंका होने पर विशेष प्रकार की ध्वनि का उच्चारण करके सारे जंगल के जीवों को सावधान करते हैं। मनुष्य के पास भाषा है, जो अनादि काल से विकसित ही होती चली आ रही है। हर भाषा की वर्णमाला है। उन वर्णमालाओं से शब्दों का निर्माण हुआ और शब्द ही वे सम्प्रेषक तत्त्व हैं जो हमारी भावना, इच्छा और आवश्यकता से दूसरों को परिचित कराते हैं। शब्द का उच्चारण कैसा है, यह हमारी उस समय की मानसिकता का परिचायक है जिस समय हम शब्द का उच्चारण करते हैं। कवि ने दूसरे खण्ड के शीर्षक को ही एक काव्यात्मक स्वरूप प्रदान कर दिया है । व्यक्ति का जो भी भाव बोध है, वह शब्द ही है । शब्द के उच्चारण मात्र से व्यक्ति की सम्पूर्ण मानसिकता प्रकाशित हो जाती है। अगर किसी व्यक्ति के विषय में समग्र जानकारी प्राप्त करनी है तो हम उसके द्वारा उच्चरित शब्दों के माध्यम से उसकी सम्पूर्ण मानसिकता का परिचय पा सकते हैं। 'राही' को ही यदि 'हीरा' बनना है, 'भला' का 'लाभ' लेना है तो हम अपनी शब्द और अभिव्यक्ति को मूल्यों के आधार पर ढालने का प्रयास करें। सन्त की वाणी की निर्मलता ही गंगा जल है । उसकी वाणी में दया, करुणा एवं प्रेम का सागर हिचकोले लेता रहता है । अत: कवि बड़ी ही चतुराई से कहता है कि शब्द का बोध ही मनुष्य जीवन का सार है। इसलिए उसके उच्चारण के समय हमें इस विषय पर शोध करना चाहिए कि हम क्या उच्चरित करने जा रहे हैं। कवि कहता है कि लेखनी जो कह रही है, उसे सुनो : “लो सुनो, मनोयोग से !/लेखनी सुनाती है :/बोध का फूल जब/ ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो/शोध कहलाता है।/बोध में आकुलता पलती है/शोध में निराकुलता फलती है,/फूल से नहीं, फल से/तृप्ति का अनुभव होता है,/ फूल का रक्षण हो/और/फल का भक्षण हो;/ हाँ ! हाँ !!/फूल में भले ही गन्ध हो/पर, रस कहाँ उसमें !/फल तो रस से भरा होता ही है,/साथ-साथ/सुरभि से सुरभित भी.!"(पृ. १०७) । शब्द के शोध से यहाँ कवि का तात्पर्य स्पष्ट होता है कि शब्द का उच्चारण मात्र बोध नहीं हैं। उसके अर्थ का परिज्ञान होना बोध है, जो पुष्प है । शब्द में गन्ध है, कोमलता है लेकिन हमारे द्वारा उच्चरित शब्द जब दूसरे तक जाता है और वह उस शब्द के रस को जब आत्मसात् करता है तो वही उस शब्द रूपी फूल का फल है, जो दूसरे को रस प्रदान कर दे। सांस्कृतिक वैभव जब किसी भी देश का दूसरी सभ्यता के संसर्ग में आकर बिखरने लगता है, तब कवि मन मौन नहीं रह सकता । आज पूरे विश्व को पश्चिमी सभ्यता से खतरा पैदा हो गया है । पूरा विश्व ही आज बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है। किसी भी समय सम्पूर्ण मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। माटी मूक है, लेकिन कवि हृदय मूक नहीं हो सकता। वह माटी की पीड़ा और वेदना के साथ जुड़ सकता है। विश्व की, मानवता की पीड़ा के साथ जीना उसका सहज धर्म ही है । शब्द के बोध को यहाँ भी कवि रोक नहीं पाया : “पश्चिमी सभ्यता/आक्रमण की निषेधिका नहीं है/अपितु !/आक्रमण-शीला गरीयसी है/...और/महामना जिस ओर/अभिनिष्क्रमण कर गये/सब कुछ तज कर, वन गये/नग्न, अपने में मग्न बन गये/उसी ओर ""/उन्हीं की अनुक्रम-निर्देशिका/भारतीय संस्कृति है/ सुख-शान्ति की प्रवेशिका है" (पृ. १०२-१०३)। इन पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि आज भारतीय कवि मन और सन्त
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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