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412 :: मूकमाटी-मीमांसा के लिए वह स्वयं की आहुति देता है । सन्तोषप्रद जीवन का लक्ष्य, पीड़ा का आधार ही जब जीवन का ध्येय हो जाता है, तब सन्त कवि की वाणी कुछ इस प्रकार प्रस्फुटित होती है : “पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है/और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ हैं'(पृ. ३३) । करुणा का साकार और मूर्त रूप कवि में ही देखा जा सकता है। माटी जो निर्जीव है, सभी के पदों से आक्रान्त है, व्यर्थ नष्ट और तमाम अनुपयोगी वस्तुओं का भार अपनी छाती पर लादे है, सम्पूर्ण प्रकृति को अपने ही रस से निर्मित किए बिछी पड़ी है, जो जैसा चाहता है वैसा उसका उपयोग करता है । उसी मूकमाटी को जब कवि-मन महाकाव्य का नायक बनाता है तो कितनी सहजता से उसकी वेदना को व्यक्त करता है : "स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,/ 'अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !"(पृ. ४) । एक कुम्भकार जब उसी माटी को पाता है तो उसकी अभिव्यक्ति होती है : “मृदु माटी से/लघु जाति से/मेरा यह शिल्प/निखरता है/और/खर-काठी से/गुरु जाति से/वह अविलम्ब/बिखरता है"(पृ. ४५) । कवि ने माटी का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। उस की दृष्टि माटी में मिलने वाले हर तत्त्व पर, हर वस्तु पर कितनी पैनी जाती है, उसे इन पंक्तियों से सरलता से समझा जा सकता है : "अरे कंकरो!/माटी से मिलन तो हआ/पर /माटी में मिले नहीं तम!/माटी से छ्वन तो हआ/पर/माटी में घुले नहीं तुम !/इतना ही नहीं,/चलती चक्की में डालकर/तुम्हें पीसने पर भी/ अपने गुण-धर्म/भूलते नहीं तुम!/भले ही/चूरण बनते, रेतिल;/माटी नहीं बनते तुम !"(पृ. ४९) । सामाजिक दशा, दुर्दशा से कवि मन बच नहीं पाता। उसके अन्तर्मन में उदात्त मूल्यों का समुद्र सदैव उमड़ता रहता है। फिर एक सन्त कवि कैसे बच सकता है : “इस प्रसंग से/वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से/वरन् /चाल-चरण, ढंग से है ।/यानी !/जिसे अपनाया है/उसे/जिसने अपनाया है/उसके अनुरूप/अपने गुण-धर्म-/-रूप-स्वरूप को/परिवर्तित करना होगा"(पृ. ४७) । इस प्रकार का आत्म-विश्वास या तो सन्त में होता है या फिर कवि में । कवि और सन्त दोनों भविष्य को देखते हैं । इसी क्रम में आगे की अभिव्यक्ति है : “वरना/वर्ण-संकर-दोष को/वरना होगा!" (पृ. ४८)।
कवि और सन्त दोनों सांस्कृतिक परम्परा के वाहक होते हैं। आज हम जिस परिवेश में जी रहे हैं, यह परिवेश सांस्कृतिक संक्रमण का है । जिस प्रकार का सुनियोजित आक्रमण आज हमारी संस्कृति पर हो रहा है, कवि और सन्त दोनों का ही मन उससे उद्वेलित है। हमारी समभाव, समदृष्टि की संस्कृति पर उपनिवेशवादी संस्कृति का जो प्रहार हो रहा है, उससे कवि को इस बात का पूर्ण विश्वास हो गया है कि यदि हम अब भी नहीं सम्भलें, अब भी नहीं चेते, तो: "वर्ण-संकर-दोष को/वरना होगा !/और/यह अनिवार्य होगा"(पृ. ४८)। भारतीय मूल्य सत्ता में जिससे हमारी सांस्कृतिक पीठिका का निर्माण हुआ उसमें, व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यक्ति द्वारा किए गए मूल्यहीन कर्म का त्याग, क्षमा, सहिष्णुता के साथ ही धर्म का स्वरूप परिलक्षित हुआ है। उसी परम्परा का निर्वहन करते हुए कवि कहता है : “ऋषिसन्तों का/सदुपदेश - सदादेश/हमें यही मिला कि/पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।। अयि आर्य!/नर से/नारायण बनो/समयोचित कर कार्य" (पृ. ५०-५१) । एक तपोनिष्ठ तपस्वी अपने जीवन को मूल्यों के प्रति समर्पित कर राख बना देता है। तभी वह जीवन के मूल्यों के प्रति खरा हो पाता है और उनके स्थापन का मानदण्ड प्रस्तुत कर पाता है। किसी राह पर चलने वाला व्यक्ति जब मार्ग का 'राही' बनता है तो उसे मार्ग पर क्षणप्रतिक्षण कसौटी पर अपने को कसना पड़ता है। कसौटी पर जो सही-सही उतरता है वह ही विलोम में 'हीरा' बनता है और वही 'राही' बन सकता है जो अपने को राख कर दे अर्थात् कसौटी पर खरा उतरे ।
___ कवि के पास शब्द को विलोम शब्दों के माध्यम से प्रस्तुतीकरण की अद्भुत क्षमता है । स्थान-स्थान पर उन्होंने शब्दों को विलोम रूप में प्रस्तुत कर नए-नए सन्दर्भो से जोड़ने का नवीनतम प्रयोग किया है । जैसे : ‘राख''खरा', 'राही'-'हीरा', 'भला'-'लाभ' आदि । भारतीय जीवन मूल्यों में 'दया' का विशेष महत्त्व है। दयावान् व्यक्ति ही जीवन मूल्यों को सार्थकता से जी सकता है। तभी हमारे जितने भी अवतार हुए हैं, उन्हें हम दयासागर, दयानिधान आदि कह उनकी महानता का वर्णन करते हैं। दया के भाव को निरन्तर याद किए रहना जीवन की पवित्रता से जुड़े रहने