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आज के अन्धकार युग में प्रकाश-स्तम्भ : 'मूकमाटी'
आलोक वर्मा सद्गुणों का अनन्त प्रवाह ही सन्त होने की परिभाषा है। किसी सन्त में जब भावना के स्तर पर सौन्दर्य बोध जाग्रत होता है तो वह निर्जीव को सजीव-सम बनाकर उसमें अपने आप को समाहित कर देता है। उसकी यह प्रक्रिया उसे एक ऐसा दर्पण आन्तरिक रूप से प्रदत्त करती है जिसमें वह उस निर्जीव की सजीवता से सीधा तारतम्य बैठाती है। उसे एक अभिव्यक्ति की भाषा भी मिल जाती है । उसी दर्पण में निर्जीवता में सजीवता का बोध करते-करते सन्त भावलहरियों में हिचकोले भरता है तो कविता फूट पड़ती है। चूंकि सन्त सद्गुणों का पर्याय होता है इसलिए सन्तत्व के मूल्य ही उसके बिम्ब बनते हैं।
___ माटी निर्जीव है, निष्प्राण है, निष्प्रकम्प है। सामान्य व्यक्ति की दष्टि में उपेक्षित है. उपहासित है। दष्टि का ही अन्तर होता है। वह माटी जिसमें हम पैदा होते हैं. जिसके रजकण में लोट-लोट कर हम बड़े होते हैं, जिसकी छाती को वेधकर जब हम उसमें बीज डालते हैं वही माटी हमें अन्न देती है: उसी माटी को वेधकर हम प बनाते हैं जो हमारी प्यास शान्त करता है; वह माटी स्वयमेव अपनी छाती पर फलदार वृक्षों को उगाकर हमें तृप्त करती है; वही माटी अपनी छाती पर पर्वतों का भार उठाकर हमें जल, पर्यावरण देती है; वही माटी जब संवेदनशील व्यक्ति की वैचारिक धारा में प्रवाहित होती है तो सजीव होकर धर्म का पर्याय बनकर, मूल्यों का पर्याय बनकर, अभिव्यक्ति पाकर रचनाकार की लेखनी से सजीव हो उठती है, प्राणवान् बन जाती है तथा निरन्तर प्रकम्पित हो मूल्य बोधों का एहसास कराती है। समस्त चर-अचर के अस्तित्व को, उसकी सम्पूर्ण वेदना, संवेदना को अपने अन्दर समेट कर महाकाव्य की आधार शिला बन जाती है।
___मनुष्य जीवन स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने की प्रक्रिया है किन्तु स्वभाववश मनुष्य स्थूल के ही विवेचन में, स्थूल की लौकिकता में या स्थूल के विश्लेषण में ही उलझा रहता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने की प्रक्रिया ही हमारी संस्कृति की पहचान है । सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की ओर प्रवाह ही भारतीय सन्त परम्परा की कसौटी रही है। संवेदना के स्तर पर इसे रचनाकार अनुभव करता है तथा साधना के स्तर पर ऋषि और सन्त । सन्त के पास यदि अभिव्यक्ति की, भाषा की निधि हो तो सोने में सुहागा जैसा प्रभाव वह जगत् के लिए छोड़ जाता है । 'मूकमाटी' महाकाव्य भाव के स्तर पर सन्तत्व और रचनाकार दोनों की संवेदना एवं अभिव्यक्ति का सम्प्रेषण करता है। माटी का जीव जगत् से क्या सम्बन्ध है, माटी के पास अगर भाषा होती तो वह अपनी पीड़ा कैसे व्यक्त करती, इत्यादि का नितान्त सजीव, सगुण वर्णन 'मूकमाटी' में है। चार खण्डों में विभक्त यह महाकाव्य अपने-अपने खण्डों में पूर्ण-सा लगता है। प्रथम खण्ड का उपनाम सन्त कवि ने 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' रखा है। अपनी साधना को कवि विकास का सोपान मानता है। साधना के स्तर पर श्रम और संयम दोनों में अटूट तारतम्य होना चाहिए। ऐसी स्थिति में मन के स्तर पर प्रकृति के स्वर मनोछन्द होकर उभरते हैं। कवि कहता है : “साधना के साँचे में/स्वयं को ढालना होगा सहर्ष!"(पृ.१०)। वह आगे भी कहता है : "चरणों का प्रयोग किये बिना/शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !"(पृ. १०)। जीवन के क्रम में साधना के जो आयाम हैं उनके लिए कठोर संकल्प की आवश्यकता है। संकल्पित कर्म ही शिखर के संस्पर्शन का मार्ग प्रशस्त करेगा। समस्त धरा मादी की ही पर्याय है । कुम्भकार द्वारा कुदाली से माटी पर किए प्रहार को माटी कितनी सहजता से लेती है, इस भावाभिव्यक्ति से ही पता चलता है कि कवि मन की संवेदनशीलता कितनी गहरी और सत्याच्छादित है : "क्रूर-कठोर कुदाली से/खोदी जा रही है माटी।/माटी की मृदुता में/खोई जा रही है कुदाली !"(पृ. २९)। सन्त पर-पीड़ा के क्षणों में भी स्व-अनुभूति में जीता है। उसके सुख का उस समय पारावार नहीं मिलता जब वह पर-पीड़ा में निज-पीड़ा की बोधगम्यता को पाता है। इसीलिए पीड़ा ही उसके जीवन का ध्येय हो जाता है। मानवता की मुस्कान