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410 :: मूकमाटी-मीमांसा
असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ/सत् को असत् माननेवाली दृष्टि
स्वयं कलियुग है, बेटा!" (पृ.८३) अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहकर ही धर्म का पालन हो सकता है। जीवन पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न होने के कारण धार्मिक अनुष्ठानों के तरीके भी भिन्न-भिन्न हो गए हैं, लेकिन मूलत: वे एक हैं। दूसरे की प्रकृति को देखकर ही हमें अपने व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए । जलती अगरबत्ती को छूने पर वह हाथ को अवश्य जलाएगी।
"लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन/रावण हो या सीता
राम ही क्यों न हों/दण्डित करेगा ही।" (पृ. २१७) भारतीय दर्शन की विविध धाराओं को 'मूकमाटी' में समन्वित होते हुए देखा जा सकता है । जहाँ कहीं धार्मिक उदात्तता है, उसे ग्रहण किया है और जहाँ कहीं कट्टरता है, आडम्बर है वहाँ उसका विरोध किया है। निश्चित रूप से 'मूकमाटी' दार्शनिक महाकृति है, जिनमें जैन धर्म का विशद विवेचन हुआ है । उपादान-निमित्त सिद्धान्त, श्रमण संस्कृति, अहिंसा की साधना, पुद्गल के लक्षण, एकान्तवाद और अनेकान्तवाद आदि जैन सिद्धान्तों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। प्रतीक एवं बिम्ब विधान
'मूकमाटी' का शिल्प प्रतीकों और बिम्बों से निर्मित है। इसमें प्रत्येक प्रसंग एकाधिक अर्थों को लेकर चलता है। सम्पूर्ण कथा विविध अन्त:कथाओं से संयोजित है । अन्त:कथाएँ भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक सूत्र में इस तरह पिरोयी गई हैं कि वे कथा को बिखरने नहीं देतीं और न ही कथा प्रवाह में कोई विघ्न उत्पन्न होता है । जब कवि एक प्रसंग का संस्पर्श करते हैं तो उसकी अतल गहराई तक पहुँच कर उसमें से आध्यात्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि कई अनुभूतियों को सम्प्रेषित करते हैं और इस सम्प्रेषण के दौरान पाठक के मन में अगले प्रसंग के लिए जिज्ञासा भी बनाए रखते हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त प्रतीक एवं बिम्ब जीवन दर्शन, आत्मालोचन, भावुकता एवं बौद्धिकता आदि से परिपूर्ण हैं।
निष्कर्षत: 'मूकमाटी' अपने परिवेश की जीवन्त अभिव्यक्ति है । इसमें सामाजिक वैषम्य, राजनीतिक पतन, नैतिक मूल्यों की गिरावट, अर्थलिप्सा, धार्मिक आडम्बर जैसे यथार्थ तथ्यों को एक वीतरागी सन्त ने चुनौतीपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने समस्याओं को उद्घाटित करके ही इतिश्री नहीं ली वरन् उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है।
दार्शनिक दृष्टिकोण से 'मूकमाटी' 'रामचरितमानस' के बाद सबसे सशक्त रचना है और शिल्प की दृष्टि से 'कामायनी' के बाद आधुनिक काल का दूसरा प्रतीकात्मक महाकाव्य है । हमारे विषम परिवेश को संस्कारित करना 'मूकमाटी' का मूल प्रतिपाद्य है । वह व्यक्ति को भीतर से इतना शक्तिशाली और दृढ़ बना देना चाहता है जिससे कोई प्रतिक्रियावादी शक्ति उसे विचलित न कर सके बल्कि विषम से विषम परिस्थितियाँ भी पराजित होकर ऐसे समाज के निर्माण में संलग्न हो जाएँ जिसमें सभी लोग बन्धुत्व और भाईचारे के साथ जीवनयापन करें। तब ऐसे समाज में न कोई किसी का शोषक होगा न किसी का शासक।