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________________ मूकमाटी-मीमांसा : : 407 पूँजीवाद का विरोध वें दशक के साहित्य में धन के विनाशकारी प्रभाव की ओर प्राय: सभी साहित्यकारों ने संकेत किया है। धन लालसा ने सभी प्रकार के सिद्धान्तों को लील लिया है। पेट की सामान्य भूख को तो मिटाया जा सकता है लेकिन लोभ की इस तृषा को कैसे मिटाएँ ? धन की लालसा में लोग निर्लज्ज हो गए हैं : "यह कटु सत्य है कि / अर्थ की आँखें / परमार्थ को देख नहीं सकतीं अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को / निर्लज्ज बनाया है ।" (पृ. १९२) पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादक और उपभोक्ता वर्ग गौण हो गया है और मध्यस्थ वर्ग प्रमुख हो गया है। जीवन मूल्यों का एक मात्र आधार आर्थिक लाभ हो गया है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ अगर कोई रिश्ता है तो वह व्यवसाय का रिश्ता है। यदि किसी व्यक्ति से किसी लाभ की सम्भावना न हो तो वह व्यक्ति चाहे हमारा कितना ही निकट सम्बन्धी क्यों न हो, हमारे लिए अनुपयोगी हो गया है। "अधिक अर्थ की चाह - दाह में / जो दग्ध हो गया है अर्थ ही प्राण, अर्थ ही त्राण / यूँ - जान - मान कर, / अर्थ में ही मुग्ध हो गया है, अर्थ-नीति में वह / विदग्ध नहीं है।” (पृ. २१७) पूँजीवाद ने अमीर और गरीब वर्ग के मध्य ऐसी विशाल दीवार खड़ी कर दी है कि उससे तमाम मानवीय सम्बन्ध नष्ट हो गए हैं। धनवानों की दृष्टि में गरीब पशु से भी बदतर हैं। उनके प्रति सहानुभूति और सहयोग तो दूर, वे जिस स्थिति में हैं, उन्हें वे उस स्थिति में भी नहीं रहने देते हैं अपितु उनका निरन्तर शोषण करते रहते हैं । इस विभेद को देखकर माटी का कुम्भ प्रभु से प्रार्थना करता है : " एक का उत्थान / एक का पतन / एक धनी, एक निर्धन एक गुणी, एक निर्गुण / एक सुन्दर, एक बन्दर / यह सब क्यों ?" (पृ. ३७२) उत्पादन की नई-नई प्रणालियाँ आविष्कृत कर उत्पादन बढ़ाना बुरी बात नहीं है। अधिक उत्पादन से सभी का हित होता है, सुख-सुविधाएँ और समृद्धियाँ बढ़ती हैं। लेकिन यदि नई प्रणालियों को लागू करने का उद्देश्य शोषण द्वारा धन अर्जित करना है तो ऐसी योजनाओं का नष्ट होना ही श्रेयस्कर है । 'मूकमाटी' में सागर राहु को याद करके कहता है : “शिष्टों का उत्पादन-पालन हो / दुष्टों का उत्पातन - गालन हो, सम्पदा की सफलता वह / सदुपयोगिता में है ना !" (पृ. २३५ ) यह वही भारत है जिसका दर्शन 'वसुधैव कुटुम्बकम्' था। लेकिन धन की लालसा ने हमारे इस दर्शन पर पानी फेर दिया। मानवता समाप्त होती जा रही है और दानवता उत्पन्न होती जा रही है। इस परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए कवि कहते हैं : 66 'वसुधैव कुटुम्बकम्' / इसका आधुनिकीकरण हुआ है 'वसु' यानी धन- द्रव्य / 'धा' यानी धारण करना / आज धन ही कुटुम्ब बन गया है / धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।" (पृ. ८२)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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