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406 :: मूकमाटी-मीमांसा की प्रमुख शैली बन गई है। समाजवाद महज एक नारा नहीं है, वह एक जीवन शैली है । कविश्री कहते हैं :
“प्रचार-प्रसार से दूर/प्रशस्त आचार-विचार वालों का जीवन ही समाजवाद है।/समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से
समाजवादी नहीं बनोगे।” (पृ. ४६१) आज धन का संग्रह सीमित व्यक्तियों के हाथों में हो रहा है और राजनैतिक नेता उनसे लाभ प्राप्त करते हैं । परिणामस्वरूप वे उनके हाथों की कठपुतलियाँ बनते जा रहे हैं। नेताओं को वैसी ही नीतियाँ लागू करनी पड़ती हैं जो धनिक वर्ग के हितों के अनुकूल हों। अत: अब आवश्यकता है जनता में चेतना जागृत करने की, और मेहनतकशों द्वारा अर्जित धन को समान रूप से वितरित करने की :
"अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो !/और/लोभ के वशीभूत हो
अंधाधुन्ध संकलित का/समुचित वितरण करो।" (पृ. ४६७) राजनीतिज्ञों द्वारा अनुचित व्यक्तियों को सहयोग देने के कारण भ्रष्टाचार पनपने लगा है। जो व्यक्ति मेहनती है, ईमानदार है उसे जब समुचित लाभ नहीं मिल पाता है बल्कि उसके अधिकृत लाभ का अपव्यय होता है और वह इस प्रक्रिया को रोक पाने में अपने आपको असमर्थ पाता है, तब वह भी उसी मार्ग पर अग्रसर हो जाता है और भ्रष्टाचार में संलग्न हो जाता है, जबकि मूलत: वह भ्रष्टाचारी नहीं है । उसे चोर बनाया गया है :
"चोर इतने पापी नहीं होते/जितने कि/चोरों को पैदा करने वाले ।
तुम स्वयं चोर हो/चोरों को पालते हो/और/चोरों के जनक भी।” (पृ. ४६८) सत् और असत् की प्रवृत्तियाँ समाज में सदैव विद्यमान रहती हैं। अवसर पाकर उग्रवादी शक्तियाँ उभरने लगती हैं। यदि सावधानी पूर्वक उनका सामना नहीं किया जाए तो वह अपनी अनुचित माँगों को मनवाने के लिए कुछ भी कर सकती हैं। 'मूकमाटी' में आतंकवाद मार्ग विरोधी बनकर परिवार के समक्ष खड़ा हो जाता है, अन्धाधुन्ध पत्थरों की वर्षा करता है और कहता है कि हमें मनमोहक विलासिता की वस्तुएँ प्रदान करो। परिणामस्वरूप परिवार का दिल दहल उठता है किन्तु नदी धैर्यपूर्वक उन्हें समझाती है :
"सत्य का आत्म-समर्पण/और वह भी/असत्य के सामने ? हे भगवन !/यह कैसा काल आ गया,/क्या असत्य शासक बनेगा अब ?
क्या सत्य शासित होगा ?" (पृ. ४६९) आतंकवादी शक्तियों के समक्ष आत्म-समर्पण करना कवि को स्वीकार नहीं है। आतंकवादियों की शर्तों को स्वीकार करना समस्या का समाधान नहीं है । आतंकवाद को नष्ट किए बगैर शान्ति सम्भव नहीं है :
"जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती
धरती यह,/ये आँखें अब/आतंकवाद को देख नहीं सकतीं।" (पृ. ४४१) इस प्रकार विस्तृत राजनीतिक परिदृश्य पर कवि की दृष्टि है । वे एक अन्त:कथा के माध्यम से अनेक अनुभूतियों को एक साथ अभिव्यक्त करते हैं।