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मूकमाटी-मीमांसा :: 405 "तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए/कुछ व्यर्थ की प्रसिद्धि के लिए
सब कुछ अनर्थ घट सकता है।" (पृ. १९७) व्यवस्था इतनी सड़-गल चुकी है कि कोई सभ्य व्यक्ति इस दिशा में कदम बढ़ाने का साहस नहीं करता। और जो व्यक्ति सत्य और ईमानदारी का पक्ष लेकर चलता है उसे असफलता का मुँह देखना पड़ता है। सफलता उसी के पक्ष में जाती है जिसके पास बहुमत होता है । कवि ने इस पीड़ा को माटी के माध्यम से व्यक्त किया है । महाकाव्य के अधिकांश पात्र मिलकर बहुमूल्य धातुओं को उगलने वाली, अन्न को उत्पन्न करने वाली ऊर्जावान् माटी को मिथ्या साबित करने की कोशिश करते हैं :
"प्राय: बहुमत का परिणाम/यही तो होता है,
पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है।" (पृ. ३८२) जो धर्म सदा ही मनुष्य को संस्कारित और उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा देता रहा, राजनीति के हाथों में पड़कर वह भी स्वार्थसिद्धि का एक साधन बन गया। लोग धर्म की व्याख्याएँ अपने-अपने हित की दृष्टि से करने लगे। फलस्वरूप पूजा-अर्चना के साधन राजनीतिक हथियार बन गए :
0 “अब तो""/अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों/और कृपाणों पर भी
'दया-धर्म का मूल है'/लिखा मिलता है।/किन्तु,/ कृपाण कृपालु नहीं हैं
वे स्वयं कहते हैं/हम हैं कृपाण/हम में कृपा न !" (पृ. ७३) ० "प्रभु-स्तुति में तत्पर/सुरीली बाँसुरी भी/बाँस बन पीट सकती है
प्रभु-पथ पर चलनेवालों को।/समय की बलिहारी है !" (पृ. ७३) धर्मस्थानों और शास्त्रों का उपयोग मानवता के विकास के लिए है। जीवन के हर मोड़ पर सुख और दुःख का सहचर बनकर शास्त्र हमारे समक्ष उपस्थित होता है । संसार में जब हमें कहीं सुख-चैन नहीं मिलता, हर क्षेत्र में निराशा हमारे हाथों लगती है, ऐसी स्थिति में धर्मस्थल हमें शान्ति प्रदान करते हैं। हमारे इन स्थलों को भी चन्द स्वार्थी लोगों ने अपने अहंकार और प्रतिशोध के अड्डे बना रखे हैं। कवि का इस दिशा में चिन्ता करना न्यायोचित है। मछली की सखी मछली से कहती है :
"...धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है
शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर।" (पृ.७३) - किसी व्यवस्था को यदि भला-बुरा कहा जाए तो उसके विकल्प को प्रस्तुत करना अच्छे चिन्तक का दायित्व भी बनता है । यदि हमारी वर्तमान व्यवस्था रुग्ण हो गई है तो उसका उपचार क्या हो ? ऐसी कौन सी व्यवस्था होगी जिसमें मानव मूल्य सुरक्षित रह सके । इस सम्बन्ध में रचनाकार की टिप्पणी है कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्र में अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करेगा, परिश्रम पूर्वक कार्य नहीं करेगा तब तक कलयुगी यातनाओं का अन्त नहीं होगा :
"श्रम-शीलों का हाथ उठाना ही/कलियुग में सत्-युग ला सकता है,
धरती पर "यहीं पर/स्वर्ग को उतार सकता है ।" (पृ. ३६२) । बातों में दोहरापन, आचार और विचार में अन्तर, झूठे आश्वासन, समाजवाद के झूठे सपने वर्तमान राजनीतिज्ञों