________________
408 :: मूकमाटी-मीमांसा
आज धन को सुख-सुविधा और शान्ति प्राप्त करने का एक साधन माना जाता है लेकिन धन की अन्धी दौड़ ने किसी को भी शान्ति नहीं दी बल्कि अशान्ति ही दी है। धन की संगति करने वाला प्राय: दुर्गति का पथ पकड़ता है। बिहारी भी कहते हैं कि स्वर्ण में धतूरे से अधिक मादकता है : “या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।" धन की लालसा मनुष्य को पराधीनता की ओर ले जाती है, क्योंकि इसमें स्वार्थपरता है। स्वर्ण कलश को सम्बोधित करते हुए कवि कहते हैं :
“परतन्त्र जीवन की आधार-शिला हो तुम,/पूँजीवाद के अभेद्य
दुर्गम किला हो तुम/और/अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला!" (पृ. ३६६) दौलत कभी स्थाई नहीं होती। यदि क्षण भर में दौलत का नशा व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षाओं को शिखर पर पहुँचा सकता है तो अगले ही क्षण उसे रसातल में भी पहुँचा सकता है । माटी का कलश गरीब वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ अमीर वर्ग के प्रतीक स्वर्ण कलश से संवाद करता है, ठीक निराला के 'कुकुरमुत्ता' की तरह :
"तुम स्वर्ण हो/उबलते हो झट से,/माटी स्वर्ण नहीं है
पर/स्वर्ण को उगलती अवश्य,/तुम माटी के उगाल हो।" (पृ. ३६४-३६५) धनवान् लोगों का जीवन, उनकी शानो-शौकत आम व्यक्ति के लिए बड़ा आकर्षक और लुभावना होता है। एक गरीब व्यक्ति किसी अमीर का सान्निध्य पाकर गौरवान्वित महसूस करता है। किन्तु अमीर व्यक्ति किसी गरीब के सम्पर्क में आता तो उसके पीछे उसका कोई स्वार्थ होता है । अन्यथा गरीब के प्रति उसके मन में कोई सहानुभूति नहीं होती है। नित्य रक्त चूसने वाला मच्छर एक सेठ के सम्बन्ध में अपने उद्गार व्यक्त करता है :
"अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है,/उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं,/काकतालीय-न्याय से/कुछ मिल भी जाय
वह मिलन लवण-मिश्रित होता है/पल में प्यास दुगुनी हो उठती है।" (पृ. ३८५) प्रकृति और पर्यावरण
मूलत: 'मूकमाटी' प्रकृति चित्रण का महाकाव्य है। सम्पूर्ण कथानक को प्रकृति के मानवीकरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। मिट्टी, कंकड़, नदी, कुआँ, लकड़ी, आग, पानी, सागर, बादल, सूर्य, चन्द्र, मच्छर, गदहा, मछली आदि प्राकृतिक उपादान इसके पात्र हैं। प्रकृति के प्रति इससे अधिक संलग्नता और क्या हो सकती है ? मात्र फूल-पत्तियों, पर्वतों-निर्झरों के सौन्दर्य का वर्णन करना ही प्रकृति चित्रण नहीं है अपितु प्रकृति के एक-एक तत्त्व को जीवन-सत्त्व के साथ सम्पृक्त कर देना प्रकृति चित्रण की महान् परिकल्पना है।
___ एक ओर कवि प्रकृति की अनुपम छटा पर मुग्ध है तो दूसरी ओर मानव द्वारा प्रकृति पर किए जा रहे अत्याचारों से दुःखी भी है। युगों-युगों से प्रकृति का शाश्वत सौन्दर्य मनुष्य को आकर्षित करता रहा है। उषा और सन्ध्या पर न जाने कितनी कविताएँ लिखी गईं लेकिन वह सौन्दर्य अखण्ड है, अपरिमेय है। प्रात:काल का एक दृश्य देखिए :
"बाल-भानु की भास्वर आभा/निरन्तर उठती चंचल लहरों में उलझती हुई-सी लगती है/कि/गुलाबी साड़ी पहने/मदवती अबला-सी
स्नान करती-करती/लज्जावश सकुचा रही है।" (पृ. ४७९) प्रकृति की हरियाली देख कवि आत्म-विभोर हो जाते हैं। प्रकृति का यह दृश्य स्वेद को हरने वाला है,