________________
402 :: मूकमाटी-मीमांसा
सुषुप्त, ऊषा, ऐहिक जैसे व्याकरण बाह्य प्रयोग भी मिलते हैं। शब्दों के विलोम के प्रति कवि का आकर्षण इतना अधिक है कि अवसर मिलते ही शब्दों की व्याख्या विलोम से करने लगते हैं- राही-हीरा, नदी-दीन, नाली-लीना, खरा-राख, तामस-समता, धरणी-णीरध आदि। अनेक स्थलों पर कवि शब्दों के अर्थ बताने लगते हैं, उदाहरणार्थ :
0 "आँखों से अश्रु नहीं, असु/यानी प्राण निकलने को हैं।" (पृ. २७९) 0 "गद का अर्थ है रोग/हा का अर्थ है हारक
मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं।" (पृ. ४०) इस प्रकार कविता के मूल में शब्दों का स्पष्टीकरण कविता में शैथिल्य उत्पन्न करता है । यह असाधारण महाकाव्य व्युत्पन्नों के लिए है। यदि क्लिष्ट शब्द की व्याख्या अपेक्षित हो, तो कविता से बाहर पादटिप्पणी में उसका स्पष्टीकरण किया जा सकता है।
यद्यपि यह महाकाव्य मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन के लिए तथा वीतराग श्रमण संस्कृति के संरक्षण के लिए रचित है । ये सिद्धान्त काव्य में इतने मुखर हैं कि उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। हर सत्ता (आत्मा) में विकास की अनन्त सम्भावनाएँ हैं । परन्तु मुक्तिपथ की यात्रा तभी आरम्भ होती है जब अपनी असत्य स्थिति का बोध होता है ।
और तब यदि समुचित परिस्थिति तथा माता के समान गुरु मिल जाए तो साधना के क्षेत्र में चरण चल पड़ते हैं। यह सच है कि साधना के क्षेत्र में स्खलन की असीम सम्भावनाएँ हैं। यह भी सच है कि स्खलनाएँ जीवन में अनर्थ उत्पन्न करती हैं। कभी-कभी साधक की आशा और उत्साह, साहस और धैर्य भी जबाव दे जाता है, परन्तु जैसे लौकिक जीवन बाह्य संघर्षों से घिरा है वैसे ही आध्यात्मिक जीवन में भी अन्तरंग शत्रुओं से संघर्ष करते हुए ही आगे बढ़ना होता है । निर्ग्रन्थ मुनि नदी के प्रवाह के समान अरुक, अथक, गति से लक्ष्य की ओर गतिमान होता है।
इस काव्य में जो तथ्य आद्योपान्त व्यक्त हुआ है वह यह कि प्रतिवस्तु का जीवन त्रिकाल-जीवन है, क्योंकि प्रतिवस्तु स्वभावतः सृजनशील व परिणमनशील है और इसीलिए किसी सृष्टिकर्ता ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। यथार्थ में प्रतिपदार्थ वह स्वयंकार होकर भी यह उपचार हुआ है । शिल्पी का नाम कुम्भकार हुआ है । इसीलिए कवि ने यह प्रश्न किया है कि क्या एक बार दूध में से घी बाहर निकलने पर फिर वही दूध बनता है ? इसी प्रकार मुक्त परमात्मा भी कभी शरीरी नहीं हो सकता । और अशरीरी इस असीम सृष्टि की रचना नहीं कर सकता।
. यह महाकाव्य साहित्य के माध्यम से दर्शन को प्रस्तुत करने की जैनाचार्यों की प्राचीन परम्परा का अक्षुण्ण निर्वाह करता है। परन्तु यह परम्परा इस महाकाव्य में आकर मौलिक हो गई है, क्योंकि इसके लिए कवि ने किसी प्रसिद्ध कथा या कथानायक का आश्रय नहीं लिया है। एक अभिनव मौलिक कथा का सृजन किया है। सभी साहित्यिक गुणों से मण्डित यह महाकाव्य, इसलिए महाकाव्य है कि यह महाकाव्य के लिए आवश्यक उदात्तता से मण्डित है। मनुष्य का चरम लक्ष्य इसका प्रयोजन है । यह युगीन चेतना से संवलित है तथा उदात्त शैली में रचित है । वस्तुत: यह ऐसा साहित्य है जिसका स्रष्टा शान्ति की साँस लेता सार्थक जीवन ही हो सकता है।
पृष्ठ ३७०. दीपक ले चल सकता है..... .आँखें भी बन्द हो
जाती हैं।