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मूकमाटी-मीमांसा :: 399
शान्त पथिकों का मुस्कराकर स्वागत करते पेड़ तथा आमन्त्रण देती लतिकाओं का सुन्दर चित्रण है :
“उत्तुंग-त -तम गगन चूमते / तरह-तरह के तरुवर / छत्ता ताने खड़े हैं,
श्रम-हारिणी धरती है/ हरी-भरी लसती है / धरती पर छाया ने दरी बिछाई है। फूलों-फलों पत्रों से लदे / लघु-गुरु गुल्म- गुच्छ / श्रान्त- श्लथ पथिकों को मुस्कान-दान करते - से / आपाद - कण्ठ पादपों से लिपटी / ललित लतिकायें वह लगती हैं आगतों को बुलाती - लुभाती-सी । " (पृ. ४२३)
कुम्भकर के आँगन में बिखरी धूप मानो सूर्य द्वारा आश्रम की सेवा के लिए भेजी गई उसकी स्त्री है :
“दिनकर ने अपनी अंगना को / दिन-भर के लिए
भेजा है उपाश्रम की सेवा में / और वह / आश्रम के अंग-अंग को आँगन को चूमती - सी / सेवानिरत- धूप !" (पृ. ७९)
काव्य में प्रकृति चित्रण प्रमुख रूप से या तो आलम्बन या पृष्ठभूमि के रूप में होता है या उद्दीपन रूप में किन्तु इस काव्य में प्रकृति चित्रण एक नए रूप में हुआ है। प्रकृति के उपादान काव्य के पात्र बनकर उपस्थित हुए हैं। यहाँ प्रकृति चित्रण कथा-प्रवाह को आगे नहीं बढ़ाता है, अपितु स्वयं कथा का अंश बनकर आया है। प्रकृति के ये सभी उपकरण मानवी रूप में उपस्थित हुए हैं। इन्हें साकार करने में अलंकारों ने अपना पूरा सहयोग दिया है।
शब्दों पर असाधारण अधिकार है कवि का । शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों काव्य में स्वाभाविक रूप से आए हैं। शब्दालंकार में अनुप्रास, यमक व श्लेष के प्रयोग में कवि सिद्धहस्त है । विशेषत: यमक की छटा संस्कृत काव्य का स्मरण कराती है। इन सबको उद्धृत करना सम्भव नहीं ।
अनुप्रास के कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं:
:
" जल में जनम लेकर भी / जलती रही यह मछली
जल से, जलचर जन्तुओं से / जड़ में शीतलता कहाँ...?" (पृ. ८५)
आगे आने वाले उदाहरण में 'स' और 'र' वर्णों की कर्णप्रिय आवृत्ति है :
“सरिता सरकती सागर की ओर ही ना ! / अन्यथा,
न सरिता रहे, न सागर ! / यह सरकन ही सरिता की समिति है ।" (पृ. ११९)
'स' और 'त' वर्णों की सुन्दर आवृत्ति का एक और उदाहरण :
"सुत - सन्तान की 'सुसुप्त शक्ति को / सचेत और
शत-प्रतिशत सशक्त - / साकार करना होता है, सत्-संस्कारों से । सन्तों से यही श्रुति सुनी है । " (पृ. १४८ )
अनुप्रास का ही एक उदाहरण और द्रष्टव्य है :
"कलिकाल की वैषयिक छाँव में / प्रायः यही सीखा है इस विश्व ने वैश्यवृत्ति के परिवेश में - / वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य ं!” (पृ. २१७)