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398 :: मूकमाटी-मीमांसा
और,/सुख-शान्ति-यश का संग्रह कर!" (पृ. २३१) प्रभाकर को पराजित करने में जब बादल असफल हो गए तो सागर ने राहु को भड़काया कि क्या मृगराज के सम्मुख मृग भी मनमानी करता है । या फिर ऐसा है कि धरती की सेवा के मिष सूर्य आपका उपहास कर रहा है। उसके अहंकार को पुष्ट करने के साथ धन का प्रलोभन भी दिया है :
"यान में भर-भर/झिल-मिल, झिल-मिल/अनगिन निधियाँ ऐसी हँसती धवलिम हँसियाँ /मनहर हीरक मौलिक-मणियाँ मुक्ता-मूंगा माणिक-छवियाँ/पुखराजों की पीलिम पटियाँ
राजाओं में राग उभरता/नीलम के नग रजतिम छड़ियाँ ।" (पृ. २३५-२३६) काव्य में अध्यात्म जितना मुखर है, समाज, जीवन और समाजजीवन की दुर्बलताएँ भी उतनी ही मुखर हैं। जब समाज में कुछ लोगों का घर बिना परिश्रम के प्राप्त अमाप धन से भर जाता है, तब उनका मस्तिष्क तो विकृत हो ही जाता है, समाज भी विकृतियों से भर जाता है।
"राहु का घर भर गया/अनुद्यम-प्राप्त अमाप निधि से।
तब/राहु का सर भर गया/विष-विषम पाप-निधि से।" (पृ. २३६) बस फिर क्या था ? जब वो कुटिल शक्तियाँ मिलीं, तब :
"सिन्धु में बिन्दु-सा/माँ की गहन-गोद में शिशु-सा
राहु के गाल में समाहित हुआ भास्कर।" (पृ. २३८) राहु के मुख में भास्कर को माँ की गहन गोद में शिशु की उत्प्रेक्षा कुछ अनुचित जान पड़ती है, क्योंकि माँ की गोद में शिशु सुरक्षित रहता है जबकि राहु के मुख में सूर्य मृत्युमुखी है । अन्य उपमाएँ सुन्दर हैं : .
"दिखने लगा दीन-हीन दिन/दुर्दिन से घिरा दरिद्र गृही-सा । ...तिलक से विरहित/ललना-ललाट-तल-सम/गगनांगना का आँगन
अभिराम कहाँ रहा वह ?" (पृ. २३८) मित्र के संकट को देख :
"अरुक, अथक पथिक होकर भी/पवन के पद थमे हैं आज
मित्र की आजीविका लुटती देख ।” (पृ. २३९) धरती पर गिरने वाले जलकणों से ऊपर की ओर उड़ने वाले भूकणों का ज़ोरदार टकराव हो रहा है, जिसके कारण जलकणों का बिखराव हो रहा है :
"अनगिन कण ये उड़ते हैं/थाह-शून्य शून्य में !/रणभेरी सुनकर रणांगन में कूदने वाले/स्वाभिमानी स्वराज्य-प्रेमी । लोहित-लोचन उद्भट-सम/...क्षण-क्षण में एक-एक होकर भी कई जलकणों को, बस/सोखते जा रहे हैं "।" (पृ. २४३)