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मूकमाटी-मीमांसा :: 397
वसन्त के अन्त के साथ निदाघ का आगमन भी उतना ही प्रचण्ड है । चिलचिलाती धूप, धग-धग करती लपटें,तपन की बरसात, दरारदार धरती का उर, आग उगलती हवा-ऐसे ग्रीष्म में अनन्त सलिला नदियाँ अन्त:सलिला होती हुई क्रमश: अन्तसलिला हो गई हैं। ग्रीष्म ऋतु के लम्बे दिन आलस्य भरते हैं तभी तो जल्दी ही उदयाचल पर आरूढ़ होने वाला सूर्य भी देर से अस्ताचल को पहुँच पाता है, क्योंकि उनकी गति में शैथिल्य आ गया है :
"अविलम्ब उदयाचल पर चढ़ कर भी/विलम्ब से अस्ताचल को छू पाते दिनकर को/अपनी यात्रा पूर्ण करने में/अधिक समय लग रहा है। लग रहा है,/रवि की गति में शैथिल्य आया है,/अन्यथा
इन दिनों दिन बड़े क्यों ?" (पृ. १७८) तीन बदलियाँ तीन कामिनियों के रूप में चित्रित हुई हैं :
"दधि-धवला साड़ी पहने/पहली वाली बदली वह/ऊपर से साधनारत साध्वी-सी लगती है ।।...इससे पिछली बदली ने पलाश की हँसी-/सी साड़ी पहनी/गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे लाल पगतली वाली लाली-रची/पद्मिनी की शोभा सकुचाती है जिससे, ...और/नकली नहीं, असली/सुवर्ण वर्ण की साड़ी पहन रखी है।
सबसे पिछली बदली ने।” (पृ. १९९-२००) तीन बादल, जो तीन लेश्याओं (कृष्ण, नील और कापोत) के प्रतीक हैं, का चित्रण भी यथार्थ हुआ है :
"सागर में से उठते-उठते/क्षारपूर्ण नीर-भरे/क्रम-क्रम से वायुयान-सम
अपने-अपने दलों सहित/आकाश में उड़ते हैं।" (पृ. २२७) पहला बादल इतना काला है कि जिसे देखकर भ्रमर दल की आशंका होती है तो दूसरा विषधर-सम नीलवर्णी
"अपने सहचर-साथी से बिछुड़ा/भ्रमित हो भटका भ्रमर-दल, सहचर की शंका से ही मानो/बार-बार इस से आ मिलता... दूसरा "दूर से ही/विष उगलता विषधर-सम नीला नीलकण्ठ,लीला वाला-/जिस की आभा से/पका पीला धान का खेत भी
हरिताभा से भर जाता है।" (पृ.२२७-२२८) सागर को सुखाने के लिए सूर्य का प्रयत्न, धरती के पक्षधर सूर्य के प्रति सागर और सागर के पक्षधर बादलों की गर्जना-प्रताड़ना दो शत्रुओं की परस्पर रण-गर्जना के रूप में प्रस्तुत हुई है।
____ यहाँ यह व्यंजना हुई है कि न्याय के पक्षधरों से इस संसार में भ्रष्टाचारी धनसंग्रहियों को कष्ट होता है । अत: वे बार-बार उन्हें अपने पक्ष में मिलाना चाहते हैं। वे न्यायपक्ष को निर्बल और अन्यायपक्ष को सबल बनाना चाहते हैं। इसके लिए साम-दान-दण्ड-भेद सभी का आश्रय लेते हैं :
"सागर का पक्ष ग्रहण कर ले,/कर ले अनुग्रह अपने पर,