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392 :: मूकमाटी-मीमांसा
के दाह को सहन करता है।
अवाँ से बाहर आकर कुम्भ के मन में एक ही भाव है कि मैं पात्र-दान के काम आऊँ। एक निर्ग्रन्थ साधकजिसका बाह्य रूप त्याग और तपश्चरण से रूक्ष हो पर अन्तरंग अहिंसा के सलिल से स्निग्ध हो- के पाद-प्रक्षालन के काम आऊँ। और उसकी यह भावना शीघ्र पूरी होती है। माटी का कुम्भ गुरु के पाद-प्रक्षालन कर अपना जीवन धन्य करता है । इस खण्ड की कथा अन्य कथाओं की तुलना में दुगुनी से अधिक है । अनेक प्रसंग, घटनाएँ, उपकथाएँ हैं। निर्ग्रन्थ साधु के आहार-दान की सम्पूर्ण प्रक्रिया, आहारदाताओं के भावों के साथ व्यक्त हुई है।
माटी सहित अनेक मूर्त-अमूर्त पात्र मानवीकृत होकर काव्य में आए हैं। प्रथम खण्ड में धरती, गदहा,कुम्भकार, मछली, रस्सी, दाँत, रसना आदि पात्र कथा प्रवाह को आगे बढ़ाते हैं। दूसरे खण्ड में कण्टक, वसन्त तथा तीसरे खण्ड में डाविसम्मन्निाकर गायपथ का पथिक भान घमखोर चन्द. तीन बदलियाँ. बडवानल. पवन और चौथे खण्ड में बबूल की लकड़ी, अग्नि, कुम्भ, मत्कुण, स्वर्ण कलशी आदि अनेक पात्र उपस्थित हुए हैं। कथा के लघु आयाम को इन पात्रों के सम्भाषणों ने विस्तार दिया है। इन सम्भाषणों के कारण ही दर्शन और अध्यात्म की भित्ति पर रचित इस काव्य में नाटकीय-गति-प्रवाह आया है। इन निर्जीव पात्रों का सजीव मनुष्य की भाँति व्यवहार कृति में नवीनता का आधान करता है।
सारे काव्य में अनेक सूक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं, जिनमें आधुनिक समस्याओं की व्याख्या है तो जीवन के सन्दर्भ में मर्मस्पर्शी वक्तव्य भी। इसमें सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों का प्रदर्शन भी है। कुछ सूक्तियाँ उद्धृत करना अनिवार्य है।
सत्पथ पथिक वह है जो पथ पर चलते हुए फिर लौट कर नहीं देखता । यह पथिक मुक्तिपथ का राही तो है ही, इसके अतिरिक्त भी जीवन में अन्य उच्च उदात्त लौकिक ध्येय को लेकर चलने वाला भी हो सकता है :
"पथ पर चलता है/सत्पथ-पथिक वह
मुड़कर नहीं देखता/तन से भी, मन से भी।" (पृ. ३) उत्थान की दिशा में साधना का पहला चरण है अपनी पतित अवस्था का एहसास करना । यही साधक के जीवन की अपर्व घटना होती है :
0 "पतन पाताल का अनुभव ही/उत्थान-ऊँचाई की
आरती उतारना है !" (पृ.१०) 0 "दुःख की वेदना में/जब न्यूनता आती है
दुःख भी सुख-सा लगता है।" (पृ. १८) यह सार्वकालिक सत्य कितने सरल किन्तु मार्मिक ढंग से व्यक्त हुआ है। विचारों की एकता और स्पष्टता सही सम्प्रेषण की अनिवार्य शर्त है :
"विचारों के ऐक्य से/आचारों के साम्य से/सम्प्रेषण में
निखार आता है,/वरना/विकार आता है।" (पृ. २२) कर्तृत्व बुद्धि अहंकार की पोषक है, और कर्तव्य बुद्धि समाज-रचना की अनिवार्यता । कवि का जीवन दर्शन इन सूक्तियों द्वारा स्थान-स्थान पर व्यक्त हुआ है :