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मूकमाटी-मीमांसा :: 391 में छना निर्मल जल मिला कर नूतन प्राण फूंक दिए हैं। पानी पड़ते ही माटी के कणों में जुड़ाव आ गया है । अलगाव की अपेक्षा एकीकरण का आविर्भाव हो रहा है। जलतत्त्व का स्वभाव बहाव माटी के प्राणों में जाकर ठहराव का अनुभव कर रहा है। पानी ने उसी प्रकार नव प्राण पाए हैं, जिस प्रकार ज्ञानी के पदों में अज्ञानी नव ज्ञान पाता है।
शीत की कठोरता का साम्राज्य है, पर शिल्पी जो कर्तृत्वबुद्धि छोड़कर कर्तव्यबुद्धि से जुड़ गया है, इस शीत से भीत नहीं है । एक सूती चादर से उसका काम चल जाता है, क्योंकि वह कम बल वाला काम का दास नहीं है।
तभी कण्ठगत प्राणवाला काँटा, जो मिट्टी खोदने में कुम्भकार की कुदाली से आहत हुआ था, प्रतिशोध से जल रहा है उसे प्रतीक्षा है कुम्भकार से बदला लेने की, परन्तु शिल्पी का विनयभाव देखकर उसका क्रोध/प्रतिशोध भाव मद की तरह उतर जाता है । उसे एक नई अनुभूति होती है। यहीं शीर्षक का रहस्य खुलता है। प्रतिशोध पाप का प्रतिनिधि भाव है, बोध पुण्य का प्रतिनिधि, परन्तु शोधभाव अनुभूति का प्रतिनिधि है । बोध में आकुलता पलती है, शोध में निराकुलता है । बोध फूल है, शोध फल । तृप्ति का अनुभव फूल से नहीं फल से होता है । फूल की रक्षा और फल का भक्षण होना चाहिए। फूल में गन्ध होती है, पर रस केवल फल में ही होता है। तभी तो साधक अनुभूति का ही रस ग्रहण करते हैं, केवल शब्द बोध नहीं और बोध अनुभूति नहीं है । बोध ही शब्दों के रूप में व्यक्त होता है। इसलिए कवि कहता है कि बोध के सिंचन बिना शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं हैं और बोध जब अनुभूति में बदलता है, तभी शोध कहलाता है। ___अनुभूति होते ही कंटक पश्चाताप करने लगता है । इस प्रसंग में नवरसों की नई व्याख्याएँ हैं। कुम्भकार माटी को रौंद-रौंदकर और मृदु करता है । कुम्भ का आकार देता है। फिर उसके जलीय अंश को सुखाने के लिए उसे खुली, तपी धरती में रखता है।
तीसरे खण्ड में खुली धूप में तपश्चरण करते कुम्भ को समुद्र भिगो डालना चाहता है । वह बदलियों को संकेत करता है, परन्तु सूर्य बदलियों से प्रभावित नहीं होता, और उन्हें सम्बोधित करता है । इसी प्रसंग में कवि के स्त्री विषयक विचार प्रस्तुत हुए हैं। स्त्री के प्रति उनका आदरभाव व्यक्त हुआ है।
समुद्र सदा से धरा को शीतलता का लोभ देकर लूटता आया है, तभी वसुन्धरा केवल धरा रह गई। उसका वसु -धन रत्नाकर बहाकर ले गया। धरती सर्वसहा है । परन्तु सूर्य न्याय-पथ का पथिक है, उसे यह अन्याय सह्य नहीं। अन्याय पर न्याय की विजय के लिए वे अपनी प्रखर-प्रखरतर किरणों से जलधि के जल को सुखाने लगे। परन्तु जला हुआ जल भी जलद बन कर बार-बार बरसता रहा । अपने दोष-छद्म को छुपाता रहा । चन्द्रमा घूस लेकर सुधाकर तो बन गया, परन्तु लज्जित चन्द्र चोर-सा संशक होने से रात को ही निकलता है । ताराएँ भी चन्द्र का अनुकरण करती हैं। लुटेरा सागर चन्द्र को देखकर उमड़ता है, सूर्य को देखकर उबलता है।
____ कुम्भकार के प्रांगण में उसकी अनुपस्थिति में मोतियों की बरसात होती है । मुक्तावृष्टि कुम्भ के पुण्यार्जन की उपलब्धि है । मण्डली सहित राजा वहाँ पहुँचता है । और मोतियों को बोरियों में भरने का संकेत करता है, पर मोतियों को छूते ही राजा की मण्डली मूर्च्छित हो जाती है। तभी कुम्भकार वहाँ पहुँचता है । ऊँकार के मन्त्रित जल से मूर्च्छित राजमण्डली को स्वस्थ करता है और स्वयं मोतियों को बोरियों में भर कर राजा को समर्पित करता है।
इधर बादल अतिवृष्टि और उपलवृष्टि करते हैं। कुम्भ उपसर्ग और परीषहों को सहन करता है। उसके पाप का प्रक्षालन हो जाता है । कुम्भकार कुम्भ की साधना से सन्तुष्ट है । अभी कुम्भ की और परीक्षा होनी है- अग्नि परीक्षा।
चतुर्थ खण्ड में माटी, जो कुम्भ का आकार पा चुकी है, उसे अभी और तपश्चरण करना बाकी है, अभी अग्नि परीक्षा देनी है । अग्नि परीक्षा देते समय घट भुक्ति और मुक्ति-दोनों की चाह से मुक्त हो गया है, सातापूर्वक बिना आह