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मूकमाटी-मीमांसा :: 387
का हेतु है। बिना शरीर धारण किए हम कुछ भी समझ नहीं सकते, यह सत्य है । ईश्वर तो सृष्टि रचना में पक्षपात नहीं करेगा कि किसी को सुन्दर व किसी को असुन्दर जीवन प्रदान करे । वह एक श्रद्धा है, विश्वास है, प्रकाश है जिसे माटीधारी देही अर्जित करता है । प्रकाश क्या है-इसे लेखक ने यत्र-तत्र अपने शब्दों में व्यक्त किया है। मायावी संसार की लपटों से इस माटी को मुक्त करना ही पड़ता है :
"कितनी तपन है यह !/बाहर और भीतर/ज्वालामुखी हवायें ये ! जल-सी गई मेरी/काया चाहती है/स्पर्श में बदलाहट,
घाम नहीं अब,/"धाम मिले !" (पृ. १४०) कवि ने प्रतीक व आलंकारिक भाषा से अपने सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने की चेष्टा में यह सृजन प्रस्तुत किया है । गुरुचरणों में आत्मारूपी गुरु ही शरीर को दिशा दे सकता है । जीवन से वैराग्य तक की अनेक स्थितियाँ यहाँ प्रतिफलित हुई हैं।
___ महाकाव्य का आकार, विषय उदात्त ही होना चाहिए । इसलिए यह कथन सत्य है कि कवि अपनी सन्देशयात्रा पूरी कर एक नई विचारधारा प्रस्तुत करना चाहता है।
रूढ़ और विकृत धार्मिक व सांस्कृतिक धारणाओं के प्रति मुनिश्री में विद्रोह है । वे उनमें व्याप्त कुरीतियों एवं विघटन को समझ कर उन्हें हटा देने को व्याकुल हैं । शुद्ध सात्त्विक भाव ही धर्म है ! वही जीवन है । इस अभिशप्त युग के लिए शुभ संस्कारों की यह रचना श्रेष्ठ मार्गदर्शन है।
मानव के जीवन से यदि अधिकार, सत्ता, लोभ हट जाए तो वह अत्यधिक सन्तुष्ट व सुखी हो सकता है और यही बात मुनिश्री अपने महाकाव्य में कहते हैं :
"पर पर अधिकार चलाने की भूख/इसी का परिणाम है।
बबूल के दूंठ की भाँति/मान का मूल कड़ा होता है।" (पृ. १३१) जीवन की वास्तविकता को समझने हेतु हमें जीवन सागर की सतही वासनाओं, आकांक्षाओं में डूबने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता । गहराई व सूक्ष्मता से इस माटी की गहराई को समझना पड़ेगा। संसार से मोक्ष हेतु शरीर, देह की मोहबन्ध इच्छाओं से मुक्त होना आवश्यक है :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का
आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है।" (पृ. ४८६) महाकाव्यानुरूप उदात्त भावनाओं का सृजन रूपक व प्रतीकों से व्यक्त हुआ है । मंगलमयपन तथा लोककल्याण का अथक परिश्रम है यह ग्रन्थ । भाषा दृष्टि से काव्य अति उत्तम है । शब्दालंकार, अर्थालंकार की झनकार प्रस्तुति उच्चकोटि के स्वर से परिपूर्ण है।
निशा का अवसान घेरा है . उपाकी अवशान ये रीटे.