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'मूकमाटी' : माटी पर हिन्दी में लिखा पहला महाकाव्य
डॉ. शिवसिंह पतंग 'मूकमाटी' को हिन्दी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखने पर इसकी भूमिका में प्रस्तवन' लेखक द्वारा उठाई गई जिज्ञासा कि 'इसे महाकाव्य कहें या खण्डकाव्य अथवा मात्र काव्य'-उस ओर दृष्टि सहज चली जाती है। मेरी दृष्टि में दर्शन के बिना कविता बाँझ होती है और कविता के बिना दर्शन रेत के समान रूखा होता है। 'मूकमाटी' ग्रन्थ न बाँझ है और न ही रेत । अपितु यह सरस काव्य है । इसके द्वारा हमें एक ऐसी पुष्ट विचारधारा प्राप्त होती है जो न केवल जैन दर्शन को हमारे सामने स्पष्ट करती है बल्कि आधुनिक समाज एवं नूतन विज्ञान को भी स्पष्ट कर देती है। .....'कबीर' की प्रसिद्ध साखी है- "माटी कहे कुम्हार से, तू का रौंदे मोय । इक दिन ऐसा आयगा, मैं रौंदूंगी तोय।" इससे ऐसा ध्वनित होता है कि कबीर से लेकर अभी वर्तमान तक परम्परा रहा ह मोटी पर लखन की लेकिन मेरी मान्यता है कि यह पहला हिन्दी महाकाव्य है जो माटी पर लिखा गया है । सन् १९३६ में डॉ. मुल्कराय आनन्द ने एक 'कुली' उपन्यास लिखा था। उस समय उसका महत्त्व इसलिए था कि उसके पूर्व कुलियों को नायक बनाकर कोई उपन्यास नहीं लिखा गया था। उसी भाँति इसका भी महत्त्व इसलिए है कि हिन्दी में माटी पर लिखा गया यह पहला महाकाव्य है। साथ ही आकार की दृष्टि से आधुनिक युग में पन्त जी के 'लोकायतन' को छोड़कर इतना बड़ा कोई अन्य महाकाव्य नहीं लिखा गया । पन्तजी का लोकायतन' अवश्य ही इतने आकार का है किन्तु शेष अन्य जितने भी महाकाव्य लिखे गए, वे भी इतने बड़े आकार के हमें नहीं दिखाई देते।
__आचार्य श्री विद्यासागरजी में पाण्डित्य विद्यमान है, तभी आधुनिक कविता की जितनी शैलियाँ हैं उन सबका प्रयोग इस 'मूकमाटी' महाकाव्य में प्राप्त है । छायावाद से लेकर नई कविता के रूप में लिखे गए या लिखे जा रहे काव्यों को दृष्टि में रखकर 'मूकमाटी' में से कुछ अंश छाँट कर, निकाल कर यदि उसके नीचे मुक्तिबोध लिख दें, तो लगने लगता है यह कविता मुक्तिबोध की है । अथवा इसके कुछ अंशों को अलग-अलग निकाल कर उनके नीचे यदि नागार्जुन एवं सुमित्रानन्दन पन्त लिख दें तो वे पंक्तियाँ भी नागार्जुन या पन्तजी की लिखी हुई लगने लगती हैं। इसलिए कहना होगा कि आधुनिक काव्य की जितनी शैलियाँ हैं वे सभी मूकमाटी' में खोजने, पढ़ने पर प्राप्त हैं। इसमें कुछ संख्याओं का भी प्रयोग है । अत: कुछ लोग कह सकते हैं कि यह भी कोई कविता है ! किन्तु ९९ की संख्या वाली एक कविता, जिसमें संसार को निन्यानवे का फेर कहा गया है, वह भी एक कविता है। हिन्दी का एक विद्यार्थी के नाते मैं कह सकता हूँ कि 'मूकमाटी' एक नए तरह का महाकाव्य है जिसमें आधुनिक कविता की जहाँ समस्त शैलियाँ समाई हुई हैं, वहीं आधुनिक साहित्य का श्रेष्ठ रूप भी 'मूकमाटी' के माध्यम से हिन्दी जगत् को ही नहीं, बल्कि दुनिया को विचार की दृष्टि से एक मौलिक विचारधारा प्राप्त हुई है।
'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने इतनी कुशलता के साथ जैन तत्त्व दर्शन दिया है कि वो बोझिल नहीं लगता। मैंने 'दिव्या' को खूब पढ़ा है । यशपाल के उपन्यास अगर आप पढ़ें तो उसमें समाजवादी दर्शन को इस प्रकार निबद्ध किया गया है जिससे कि उसका अलग से कोई पता ही नहीं चलता। ठीक ऐसे ही कलात्मक ढंग से 'मूकमाटी' में जैन दर्शन को पिरोया गया है जिसे कोई भी जैन या अजैन बन्धु पढ़े, परन्तु काव्य में बोझिलता नहीं आती । इसमें ज्ञान की कथा है। शिव की कथा भी है। इसमें कामदेव हैं तो सीता भी हैं। प्रसंग में जहाँ रावण है तो कहीं बाली एवं हनुमान भी हैं। आज की ज्वलन्त समस्या आतंकवाद भी है । अतएव इसे हम समग्रता से देखें-पढ़ें तो कह सकते हैं कि यह वो जैन दर्शन है जो जैन दर्शन ही भारत वर्ष है, समग्र विश्व है।
'मूकमाटी' में एक व्यापक दृष्टि पढ़ने, देखने को मिलती है। इसे मैं एक उदाहरण से बतलाना चाहूँगा । दो श्रमण कठोर तप करते हैं। वर्षा ऋतु में वे नंगे वदन बाहर खड़े रहते हैं तो जाड़े में बिना कपड़ों के रहते और गर्मी में आग