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382 :: मूकमाटी-मीमांसा
लिए जहाँ वह अपने मनोबल या बुद्धिबल का अवलम्ब लेता है, वहाँ उसे नैतिक बल का भी सम्पोषण चाहिए। इसके लिए स्वरूप ज्ञान का वैशिष्ट्य जड़-प्रतीक-कुम्भ के स्थान पर चेतन-प्रतीक की तरल प्रतीति के लिए बाधक सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त भेद के माध्यम से अभेद तक की यात्रा अधिक स्वाभाविक होती। यदि मानव की स्वायत्तता, स्वतन्त्रता और गौरव चेतना को माटी कलश, रजत कलश, स्वर्ण कलश आदि प्रतीकों के स्थान पर उसमें मानवीय धप-छाँव की गंगा-जमनी रंगत दी जाती, तो उसकी गुणवत्ता को उसके अपनेपन या वैशिष्ट्य का बोध सम्भव था।
प्रस्तुत कृति में भेदात्मक स्थितियों के परिहार के लिए 'समरसता' या 'सामरस्य' के आदर्श वाक्य को उस सीमा तक नहीं अपनाया गया जिस तक अपनाना चाहिए था। क्योंकि पुरुष और प्रकृति अथवा शिव शक्ति के बीच एकत्व प्रतिपादन तब अखण्डता और अविभाज्य तत्त्व की अवधारणा के रूप में उभरता और महाशक्ति का रूप ग्रहण कर लेता और तत्त्व तथा तत्त्वातीत सत्ता का एकीकरण हो पाता । समरसता, सांख्य-दर्शन की परात्परता तथा वेदान्तिक मायावाद के औदात्य से भिन्न है । सामरस्य ही 'चित्त' और 'अचित्त' में एकत्व प्रस्तुत करता है, जिसे चेतनअचेतन की समरसता भी कहा जा सकता है, जिससे क्रिया-प्रतिक्रिया की गति-श्रृंखला को निष्क्रिय किया जा सकता था । द्रष्टा के दृष्टिकोण हाथी को बैल और बैल को हाथी बनाने के लिए क्यों कृतसंकल्प होना चाहिए।
पुरुष और प्रकृति मूलत: अभेद हैं, परन्तु प्रतीक कल्पना में निम्नमुखी त्रिकोण की अवस्थिति स्वीकार की गई है, ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण के संकल्प को नकारा गया है, जबकि सत्य-सन्धान में सर्वांगीण एवं समग्रता के दृष्टिकोण का ही प्रतिफलन होता है । अवयय-अवयवी सम्बन्ध या अंश-अंशी सम्बन्धों के फलक पर ही अखण्ड एवं अविभाज्य चेतना का उदय सम्भव हो सकता था। पारमार्थिक सत्ता ब्रह्माण्ड रूप दिखाई देती है, इसलिए सामान्य है, तथा आकारहीनता में अभेद की स्थिति है । परन्तु व्यावहारिक सत्ता के सन्दर्भ में वैशिष्ट्य के आकारात्मक भेद स्थिति को 'सामरस्य' के आदर्श को अपनाए बिना अखण्ड एवं अविभाज्य नहीं बनाया जा सकता। अत: व्यष्टि स्तर पर ‘अविद्या' से सामना करना होगा, और समष्टि स्तर पर माया का । पिण्ड सिद्धि द्वारा सिद्ध देह एवं जीवन मुक्ति और समरसीकरण द्वारा परामुक्ति की ओर अभिगमन हो सकेगा। इसलिए समरसता एक क्षणिक स्थिति न होकर शाश्वत उपलब्धि हो सकती थी।
भारतीय दर्शन परम्परा में जहाँ ईश्वर के सृष्टिकर्ता अथवा विश्वसर्जक होने की अवधारणा प्रचलित है, जैसे कुम्भरूपी कार्य का कर्ता कुम्भकार है, वैसे ही कुम्भ के समान जगत् भी एक कार्य है और कुम्भकार के समान परम तत्त्व निमित्त कारण (Efficient Cause) के रूप में इसका कर्ता है । परन्तु अशरीरी होने से उसके कर्ता होने की सम्भावना नहीं, क्योंकि सभी सावयव पदार्थ कार्य होते हैं, इसलिए जगत् भी सावयव होने के कारण है। नैयायिक जगत् के सावयव कार्यत्व को स्वीकार नहीं करते । जैन दर्शन भी सृष्टि और विनाश को पदार्थों के गुणों एवं प्रकारों के कारण तो मानता है, परन्तु सत् का अभाव और असत् से सृष्टि की सम्भावना को स्वीकार नहीं करता।
___ यदि ईश्वर को जगत्सर्जक मान लिया जाए तो मानवीय कृति को भी ईश्वर की कृति मानना पड़ेगा, जिससे जगत् निर्माण के लिए अनेक ईश्वर मानने पड़ेंगे। यदि ईश्वर पुण्य-पाप की सहायता से जगत् निर्माण करता है तो वह स्वतन्त्र कर्ता नहीं, फिर वह किसी को सुखी या दुःखी क्यों बनाता है ? ईश्वर शाश्वत है तो क्रिया रूप में वह सृष्टि करता है और यदि निष्क्रिय है तो सृष्टि कैसे कर सकता है ? यदि सृष्टि प्रलय या विकार है, तो ईश्वर कैसे अविकारी एवं कूटस्थ है ? उसका जगत् निर्माण का क्या कोई प्रयोजन है ?
इस प्रकार 'मूकमाटी' सम-सामयिक समस्याओं को तो क्या सुलझाएगी, प्रत्युत अनावश्यक विवादों, प्रचारात्मकता के ऐसे रुझान को पनपाएगी, जिसका निराकरण लेखक के लिए सम्भव नहीं हो पाएगा।