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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 381 स्पष्टीकरण देकर कहाँ सार्थक हो पाएगी ? इससे कृति, कृतिकार के भुजपाश से मुक्त होकर स्वायत्त और स्वतन्त्रता की साँसें नहीं ले पाती। उसका दम घुटता है। कृति को लगता है, कहीं शब्द-शिल्पी कृतिकार अब रूठा-की तब रूठा, और सैद्धान्तिक व्याख्यान के कषाघात का प्रहार अब हुआ या तब हुआ। लेखनी जज की भाँति निर्णय लेती है और फ़तवे देती है। वह चाहे-अनचाहे भाव बाध्य होकर हस्तक्षेप करती है। पात्रों के अभाव में प्राकृतिक तत्त्वों को पात्रों की भूमिका निभानी पड़ती है, भावों को स्वयं अपने आपको प्रतिनिधि के रूप में भेजना पड़ता है। पक्ष भी, विपक्ष भी- सभी स्थितियाँ यन्त्रवत् लेखनी से संचालित हैं। लेखनी सभी ऊबड़-खाबड़ भूमियों, गर्तों को पाटती, यूँ सटपटाती भागती चलती है, जैसे वह किसी वैचारिक पिकनिक पर निकली हो, और कोई रोबोट (यन्त्र मानव) उन्हें दबोचने के लिए उनका पीछा कर रहा हो । परन्तु आतंकवाद के भयावह रक्तिम पंजे देखकर लेखनी की स्याही न तो लाल होती है, न पीली, प्रत्युत मौन रहकर सबको सर्वसहा होने का सन्देश देकर, सब पर सबका अपना-अपना दायित्व छोड़कर वैराग्य-पथ का अनुसरण करती है तथा मूकमाटी की भाँति मौन की चादर सिर से पाँव तक ओढ़ लेती है, आँखें बन्द कर लेती है । लेखनी ने कितने शब्दों की संरचना को तोड़ा, कितने क्षत-विक्षत अर्थों के बखिए उधेड़े, कितने वाक्यों के चौखटों को छीला-तराशा, उससे भला आपको या पाठकों को क्या लेना-देना । लेखनी ने मंगल कलश (कुम्भ) का शुभत्व ऐसे टाँग रखा है कृति के माथे पर, जैसे कोई नज़र बटू अर्धनिर्मित नए मकान के माथे पर झाँक रहा होता है और प्लास्टर के बीच में से ईंटे दाँत दिखा रही होती हैं । विभिन्न प्रत्ययों, अवधारणाओं, आदर्शों, धरातलों, दर्शनों का जो घोल समकालीन बोध और मानसिकता के लेप के लिए इस कृति में प्रस्तुत किया गया है, वह घायल जीवन को सहलाने के स्थान पर आनुष्ठानिक धुएँ से उसे थोड़ा और ध्वान्त, थोड़ा और भ्रान्त करने के लिए दायित्व मुक्त, सायास प्रयास सिद्ध होता है, जो देखते ही बनता है। शोधपद्धतियों में बोध पद्धतियों के मिश्रण और चूर्ण पिष्ट-पेषण की प्रक्रिया में इतनी बार पिसते हैं कि इनके अणु-परमाणु सत्-असत् की विवेक-बुद्धि को तिलांजलि देकर बुद्धि के उदर में अजीर्णता उत्पन्न करने के लिए सक्षम हैं। प्रारम्भिक तीन खण्डों में पाठक की मनोदशा यदि कुछ उत्साहवर्धक जिज्ञासा का दामन अपने हाथों से खिसकने से रोक पाती है तो चौथा खण्ड अपने अप्रासंगिक, निरर्थक विस्तार से मूर्छा या कोमा की स्थिति के लिए जिम्मेदारी से इनकार नहीं कर सकता। सचमुच माटी के मुख पर एक पट्टी का करारा मौन धर दिया गया है, उसे मूक एवं बधिया कर दिया गया है, एक बने बनाए चौखटे में उसे जड़ दिया गया है। मानव की नितान्त निजी और सामूहिक मानसिकता एवं मनुष्य भेद की सामान्य आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशीलता की जब तक एक साथ अभिव्यक्ति नहीं हो पाती, तब तक मनुष्य में सामान्य' पक्ष हावी रहता है, और जीवन का 'विशिष्ट' पक्ष दबा रहता है। मानव का गुणात्मक वैशिष्ट्य तो उसके कर्म सौन्दर्य में प्रतिफलित होता है। अपने कर्तृत्व के प्रति सजग कर्ता ही, सृष्टिकर्ता के कर्तृत्व की रेखाओं की गति, स्थिति और लय दे पाता है। अन्यथा, गुरु हो या महापुरुष वह जीव के वैशिष्टय को समझे बिना, उसे उसके किस स्वभाव, स्वरूप या वैशिष्ट्य का बोध कराएगा, तथा उसे अपने अनुग्रह का प्रकाशरूपी प्रसाद कैसे बाँट पाएगा ? वह शिष्य का अविद्याजनित कौन-सा 'आवरण-संवरण' खोलेगा, और मायाजनित किस शंका या भ्रम का कैसे निवारण करेगा ? निस्सन्देह मानव देह ब्रह्माण्ड की प्रतीक है, परन्तु मानव के विश्व रूप या सामान्य रूप के कलश का आधार किस युगबोध के चैतन्यविशिष्ट बिन्दु से प्रस्फुटित होगा, तथा सीमा से असीम की विश्वातिकामी यात्रा कर पाएगा? भोग और ऐश्वर्य थोड़ी देर के लिए मानवीय चेतना को धुनियाते ज़रूर हैं, परन्तु उसकी विशिष्टता जो उसके अवचेतन में प्रसुप्त होती है, उसे उसकी अपूर्णता का भान कराती है और वह अवस्था विशेष से पूर्णत्व के पथ पर अग्रसर होने के लिए व्याकुल हो उठता है। जड़ता अविद्या की हो या मायिक सत्ता की, दोनों उसके तरल चैतन्य को सीमित करते हैं। इनसे उन्मुक्त होने के
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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