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380 :: मूकमाटी-मीमांसा में रचा-बसा सिद्धान्त न होकर एक निरपेक्ष दृष्टिकोण मात्र रह जाता है। ऐसा लगता कि बिखरी रचनाओं को सायास एकत्र करके रख दिया गया हो और जिसका सूत्र तनाव की हड़बड़ी में टूट गया हो।
'मूकमाटी' कृति में भावात्मक, रागात्मक या कल्पनात्मक तत्त्वों का अभाव खटकता है । जीवन्त पात्रों के स्थान पर प्रतीकात्मक जड पात्रों का सजन, आदर्श एवं वैचारिक ऊहापोह, कम्भ-कम्भकार. कारण-कार्य. निमित्तउपादान तथा घट-पट की उबका देने वाली दार्शनिक शब्दावली, जनसाधारण की अभिरुचियों को भले ही परिष्कृत करे, परन्तु उन्हें रुचिकर क्यों कर होगी ? व्यक्ति की मानसिकता पर दैनिक जीवन की घटनाओं के घात-प्रतिघात उसके चैतन्य को, अनुभूतियों को संवारते, उबुद्ध एवं समृद्ध करते हैं, तब देश और काल ठोस यथार्थ का रूप धारण कर लेते हैं, जिसमें मानवीय क्रीड़ा सम्भव होती है।
शाब्दिक चमत्कार के लिए प्रयुक्त शब्द-व्युत्पत्तियों के प्रयोग व्याकरण सम्मत नहीं कहे जा सकते, न ही इससे अर्थ चमत्कार को प्रश्रय मिलता है। बात तो रमणीय अर्थ की है, जिसे दार्शनिक कोटि के शब्द-प्रतीक वहन नहीं कर पाते, क्योंकि उनके मूलस्रोत उन शब्दकोटियों में हैं, जो पारिभाषिक या अवधारणात्मक हैं। धर्म के क्षेत्र से आध्यात्मिक-शब्द-कोटियों का चयन पारमार्थिक सत्य की तलाश करता है, जिससे मानवीय भाव-द्वन्द्वों में उद्वेलन न होकर पाठक भाव-प्रशमन की ओर उन्मुख होता है । यदि कहीं उद्वेलन होता भी है तो वह मानवीय सन्दर्भ में न होकर प्रतीकात्मक रूप में, प्राकृतिक-क्रिया-व्यापार में होता है जो प्रकृति में विक्षोभ, सागर में उद्वेलन, मेघों के वज्र-प्रहार तथा कुम्भ के अवे में पकने-तपने तक सीमित है । इस प्रकार 'माटी' मूक हो जाती है और प्राकृतिक-क्रिया-व्यापार मुखर हो उठते हैं। नायिका का पद-भार प्रकृति ग्रहण कर लेती है और माटी घुल-पिघल कर, तप-पक कर मूक हो जाती है।
वस्तुत: मानव जीवन, माटी में से नि:सृत मानव देह का कर्मक्षेत्र है । मानव का कर्म सौन्दर्य ही उसका वैशिष्ट्य है, जो वस्तुगत रूपान्तरणों में प्रतिफलित होता है । ललित कलाएँ इन रूपान्तरणों, आकलनों को सौन्दर्य से मण्डित करती हैं। मानवीय कर्मगत वैचित्र्य और भावगत सौन्दर्य के दर्पण में उसकी आत्मीयता आत्म-विस्तार, औदात्य बिम्बित होते हैं । व्यक्ति जब भोगप्रधान समाज की संरचना करता है तो वह अपने सामान्य' की ओर बढ़ता है । जब वह त्याग का मार्ग अपनाता है, तब वह अपने 'वैशिष्ट्य' से जुड़ता है । 'मूकमाटी' कृति में प्राकृतिक व्यापार की इतनी प्रधानता है कि मानवीय जीवन के आरोह-क्रम, अवरोह-क्रम दब से गए हैं । आरोह-क्रम में प्रकृति की स्वाभाविक विवर्तनमयी नियामिका की भूमिका को कैसे अनदेखा किया जा सकता था, जीव-स्पन्द में शक्ति के विकास-क्रम मूलक पक्ष को कभी नकारा नहीं जा सकता।
'मूकमाटी' कृति को संयोजित करने की भूमिका का सीधे निर्वहन 'लेखनी' यत्र-तत्र करती दिखाई देती है। लेखनी का दीर्घतम सैद्धान्तिक नाक की थूथन जब विषय-वस्तु की छीछालेदर करने के लिए बीच में घुस पड़ती है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि कोई घुसपैठिया अवैध रूप से सीमातिक्रमण कर, अनधिकृत क्षेत्र में घुस आया हो । लेखनी या तो बीच-बीच में सूई के तारों से चिन्तन के दो टुकड़ों को सीती-पिरोती प्रतीत होती है, या चिप्पियाँ चिपका कर कुछ पर्दा डाल रही होती है, या फिर सीधे-सादे बिखराव को बुहार रही होती है, या कोई गुंजनक का पत्थर धम्म से कीचड़ में फेंक रही होती है । लेखनी का अडंगा विश्वासपात्र स्पीड ब्रेकर-सा हर परिदृश्य के साथ ऐसे चिपका होता है, जैसे स्वामिभक्त चौकीदार चौकसी से पहरा दे रहा हो । पाठक कृति की राह से गुज़रने के स्थान पर, लेखनी की सूई की नोंक से गुज़रता है । लेखनी की बैसाखियों का सहारा लेकर खड़ी कृति को लगता है, शायद उसे अपने आप पर भरोसा नहीं। जिस बात को कृति के सन्दर्भ नहीं स्पष्ट कर पाते, शब्द और वाक्य नहीं स्पष्ट कर पाते, भला वहाँ लेखनी अपना