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________________ 'मूकमाटी': एक जीवन्त महाकाव्य मिश्रीलाल जैन 'मूकमाटी' परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी की अमर कृति है। ज्ञान और चारित्र की अद्भुत संगम होने के कारण आचार्यश्री की कान्ति सम्पूर्ण भारत वर्ष में व्याप्त है। 'मूकमाटी' के सृजन काल में एवं कृति के सम्पूर्ण होने के पश्चात् इस अमर कृति के अनेक महत्त्वपूर्ण स्थल आचार्यश्री के मुख से सुनने का अतिदुर्लभ सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है। इस पवित्र अनुभूति के कारण कृति के कुछ अज्ञात प्रदेशों में प्रवेश करने का प्रयत्न करूँगा। महाकाव्य की प्रचलित परम्पराएँ महाकाव्य लेखन के विकास क्रम, यात्रा क्रम में टूटती रही हैं। दिनकर का प्रबन्ध काव्य रश्मिरथी' प्रत्यक्ष प्रमाण है । उन्होंने नायक के रूप में उपेक्षित कर्ण को अपने प्रबन्ध काव्य के नायक रूप में चुना । 'मूकमाटी' भी महाकाव्य की शत-प्रतिशत परम्परा को छोड़ कर/तोड़ कर सृजित हुई है । माटी को महाकाव्य की नायिका चुन कर आचार्यश्री ने अगम कौशल का परिचय दिया है। ___ यह शाश्वत सत्य है कि माटी मूक होती है किन्तु इस महाकाव्य की माटी अपनी व्यथा-कथा इस प्रकार सुनाती है कि पढ़ कर व्यक्ति चकित और पुलकित हो जाता है । 'मूकमाटी' में माटी को मंगल घट बनने में जिस प्रकार की यात्रा करनी पड़ती है वह वास्तव में विकारी मन को निर्विकार होने का संकेत देती है जिसे प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया गया है । 'मूकमाटी' की प्रारम्भिक पंक्तियाँ पढ़ते समय ऐसा लगता/प्रतीत होता है कि महाकवि प्रसाद की संस्कृत भाषा-शैली में ही इस महाकाव्य के सृजन का शुभागमन हो रहा है, यथा : “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई, और "इधर 'नीचे/निरी नीरवता छाई।" (पृ. १) किन्तु इन पंक्तियों के पश्चात् ही काव्य की भाषा-शैली लयात्मकता को छोड़ कर अतुकान्त रूप गद्य की शैली में परिणत हो जाती है । यदि शुभारम्भ से ही भाषा-शैली में दर्शन यथावत् बना रहता है तो दर्शन का परिवेश पाठकों को अत्यन्त दुरूह हो जाता । सम्भवत: इसीलिए कवि ने भाषा के माध्यम से इतना अवश्य कर दिया कि वे दार्शनिक गहराई में पहुँच सकें और कृति के आनन्द से वंचित न रहें। 'मूकमाटी' महाकाव्य की यात्रा चार सर्गों में विभाजित है जिसमें पहले सर्ग का शीर्षक दिया गया है-'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'। इस सर्ग में मूकमाटी धरती माँ को अपनी व्यथा सुनाती है : “सुख-मुक्ता हूँ,/दु:ख-युक्ता हूँ।/ ...इस पर्याय की/इति कब होगी?/इस काया की/च्युति कब होगी ?"(पृ. ४-५)। इतना सुनकर धरती माँ अपने वात्सल्य का प्रदर्शन करती है । और माटी का पथ-प्रदर्शन करती है : “सत्ता शाश्वत होती है/सत्ता भास्वत होती है बेटा!/रहस्य में पड़ी इस गन्ध का/अनुपान करना होगा" (पृ.७)। प्रथम सर्ग में माटी शिल्पी के पास पहुँच जाती है, जहाँ से मंगल घट के निर्माण की यात्रा प्रारम्भ होती है । इस सर्ग में निम्नलिखित पंक्तियाँ सूक्तियों के रूप में शाश्वत सन्देश देती हैं : “संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियमरूप से हर्षमय होता है" (पृ. १४) अथवा “अति के बिना/ इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं"(पृ.३३)। दूसरे सर्ग में वह मूकमाटी सुसंस्कृत होने से निर्माण की प्रक्रिया में प्रयुक्त हो जाती है । जीवन-निर्माण की क्रिया में संयमित होना, कष्टों को उठाने का अभ्यास माटी को घट रूप में धारण, परिवर्तित कर देता है। फिर भी जल धारण करने रूप पर्याय अभी प्राप्त नहीं हुई, अत: संयम की अग्नि में तपना पड़ता है। बिना तपे न स्वर्ण शुद्ध होता है और न ही घट में परिपक्वता आती है, क्योंकि वह किसी भी क्षण टूट सकता है । इस सर्ग में मिट्टी घट का रूप धारण कर लेती है किन्तु घट की आकृति प्राप्त कर लेना ही उसकी पूर्णता नहीं है। शिल्पी माटी की मनोभावना को इस प्रकार अंकित करता है कि चेतन की क्रियावती शक्ति, जो बिना वेतन वाली है, सक्रिय हो जाती है और चेतन की इस स्थिति
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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