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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 367 संयम, क्षमा आदि धर्म के मूलभूत दस आचारों द्वारा सिद्धि का प्राप्त होना है। तन का नियन्त्रण सरल होता है और मन का नियन्त्रण असम्भव/कठिन है यानी धर्म का दुर्भेद्य मार्ग एवं उसका स्वरूप है। ___जैन धर्म में बाईस प्रकार के कष्टों (परीषहों) का उल्लेख उपलब्ध होता है-भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मच्छर आदि से उत्पन्न पीड़ा, नग्न रहना, अतृप्ति (अरति), नारी, पैदल चलना, आसन लगा कर बैठना, सोना, दुर्वचन सहन, मार-पीट सहन , भिक्षा आदि न माँगना, आहार आदि का न मिलना, रोग, काँटे आदि का सम्पर्क, धूल, मान-अपमान, ज्ञान का घमण्ड, अज्ञान, धार्मिक विश्वास की शिथिलता आदि (द्रष्टव्य-तत्त्वार्थ सूत्र, ९/९)। जैन साधु शरीर को भी आत्मा का शत्रुवत् मानते हैं । अत: वे चुन-चुनकर उन्हीं मार्गों को अपनाते हैं, जिनसे शरीर को भले ही अपरिमित कष्ट हो किन्तु वे उन परिस्थियों में भी समता धारण कर कर्मों को पृथक् कर सकें। 'मूकमाटी' में समत्व योग पर बल दिया गया है । समत्व की साधना ही सम्पूर्ण आचार दर्शन का सार है । जहाँ चेतना है वहाँ समत्व बनाए रखने का प्रयास दृष्टिगोचर होता है । जैन धर्म में नैतिक एवं आध्यात्मिक साधना के मार्ग को समत्व योग यानी त्रिविध-साधना तथा साधना पथ के साध्य का अनुपालन माना है । वही आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में चित्तवृत्ति का समत्व, बुद्धि का समत्व और आचरण का समत्व कहलाता है । इस प्रकार जैन धर्म का साधनापथ समत्व योग की साधना ही है, जिससे मानव चेतना के तीन पक्ष - भाव (जानना), ज्ञान (अनुभव करना), संकल्प करने की धारणा आती है। माँ धरती, पुत्री माटी को प्रथम स्थिति यानी जानने का मार्गदर्शन करती हुई कहती है कि उसे रहस्य में निहित गन्ध का अनपान करना होगा (प. ७)। इसके लिए सम्यक ज्ञान-चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सत्य की उपलब्धि की ओर ले जाना होगा । स्वच्छ हीरक जलधारा के दृष्टान्त को प्रस्तुत कर जीवन में संगति पर सावधानी बरतने का परामर्श है । जीवन का साध्य तभी सम्भव है जब ज्ञान, चेतना और संकल्प – ये तीनों सम्यक् होकर साधना-पथ का निर्माण कर देते हैं और यही पूर्ण होकर साध्य हो जाते हैं। गधे की छिलती हुई पीठ को देख माटी की पतली सत्ता अनुक्षण अनुकम्पा से सभीत हो हिलने लगी। कुछ क्षणोपरान्त माटी की करुणा बोरी से छन-छनकर गधे की रगड़ खाती पीठ पर मरहम बन जाती है । जैनाचार्यों ने अहिंसावाद को अत्यधिक महत्त्व दिया है। सारा धर्म इसी धुरी पर टिका हुआ है। _ बौद्ध धर्म में अहिंसा की एक सीमा है कि स्वयं किसी जीव का वध न करो, लेकिन जैन धर्म में अहिंसा बिलकुल निस्सीम है। स्वयं हिंसा करना, दूसरों से हिंसा करवाना या अन्य किसी भी तरह से हिंसा में केवल शारीरिक अहिंसा के निषेध तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत बौद्धिक हिंसा करना भी निषेध है । यह बौद्धिक अहिंसा (अनुमोदना) ही जैन दर्शन का अनेकान्तवाद है । माटी की उदासता, कि इस छिलन का निमित्त 'मैं ही हूँ, का यही प्रमुख कारण है। चौथे खण्ड में सेठ की कथा के माध्यम से सम्पूर्ण जैन दर्शन को विविध प्रसंगों, पीड़ाओं के माध्यम से स्वर दिया है। वैदिक धर्म जैसे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर की सत्ता पर विश्वास करता है, उसी भाँति जैन दर्शन भी स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म कर्म-शरीर पर विश्वास करता है । स्थूल शरीर के छूट जाने पर भी यह कर्म-शरीर जीव के साथ रहता है और वही उसे फिर अन्य शरीर धारण करवाता है । खसखस के दाने-सा बहुत छोटा होता है बड़ का बीज, उसे हम सूक्ष्म कर्म-शरीर मान लें और बड़ के बीज के पुन: अंकुरित होने की प्रक्रिया को पुन: अन्य शरीर धारण करने की बात मान लें तो तथ्य समझ में आ जाता है । साथ ही आत्मा की मनोवैज्ञानिक इच्छाओं से- वासना, मोह, तृष्णा, कामादि से इस कर्म शरीर की सम्पुष्टि यानी बड़ को अंकुरित होने के लिए समयोचित खाद, हवा, जल की प्राप्ति से फलना-फूलना । कर्म शरीर तभी छूट सकता है जब जीव वासनाओं से मुक्त हो जाता है। ___जैन धर्म यह मानता है कि सत्ता शाश्वत होती है। इसके किसी भी सत् का सर्वथा नाश नहीं होता, न किसी असत् से नए सत् का उत्पादन ही सम्भव है :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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