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366 :: मूकमाटी-मीमांसा
घुट रहा है । आँखों में से प्राण निकलने को हैं, पूरी शक्ति लगा कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम किया (पृ. २७९) । अनल का परस पाकर कुम्भ की काया-कान्ति का जल उठना ही ऊर्ध्वमुखी होना है । यही विशुद्ध परस है (पृ. २८१) ।
सागर जल के प्रसंग के माध्यम से आचार्यश्री ने कषायों का उल्लेख कर इस तथ्य को उजागर किया है कि हिंसा के कर्मों की जड़ इन्हीं कषायों में निवास करती है । जलधि के दुर्व्यवहार के बावजूद भी धरती प्रतिशोध नहीं चाहती। यह आचरणों में से एक आचरण है जहाँ मन की अवस्था में समभाव होता है । सूर्य का धरती के साथ न्याय करना एवं सूर्य का जलधि-जल को वाष्प बनाना और वर्षा के रूप में पुन: लौटा देना आदर्शभूत एवं कषायहीन आचरण एवं व्यवहार कहा जा सकता है। इसी कारण जलधि का सूर्य को घूस देने की प्रक्रिया में असमर्थ होने का भावबोध है । चन्द्रमा का जल तत्त्व से घूस लेना जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धान्त के अन्तर्गत कषाय का रूप-माया एवं लोभ है । वसुधा की सारी सुधा का सागर में एकत्र होना, सूर्य के द्वारा उसका सेवन करना, सागर का वंचित रह जाना आदि कर्मों का कर्ता और फलाफल के भोक्ता रूप ध्यान के सिद्धान्तों में से एक है। अपनी करनी पर चन्द्रमा का लज्जित होनाअपने कर्मों का कर्ता और उनके फलों का जिम्मेदार हैं। यही कारण है कि वह चोरों की भाँति मँह छिपाकर रात्रि में बाहर निकलता है। यह प्रसंग कर्मों के फल-भोग और मृत्यु इत्यादि के सन्दर्भ में आत्मा की विवशता ही समझी जानी चाहिए। सागर कषायों से लिप्त है इसीलिए तो चन्द्र को देखकर उमड़ता है और सूर्य को देखकर उबल पड़ता है। यह क्रोध है । जल का सीपियों में मुक्ता रूप पोषण समस्त सृष्टि और उसके स्वरूप की चर्चा है कि वही समान पोषक तत्त्व समस्त प्राणियों के होते हैं किन्तु कोई मुक्ता बन जाते हैं और कोई कषाय का रूप ग्रहण कर लेते हैं। धरती का बदली की ओर अवलोकन कर्मों की धारा का आत्मा की तरफ बहाव का प्रयोजन है । मेघ से मेघमुक्ता का अवतार होना धर्म मार्ग का स्वरूप है।
"मुक्ता की वर्षा होती/अपक्व कुम्भों पर/कुम्भकार के प्रांगण में !
पूजक का अवतरण!/पूज्य पदों में प्रणिपात ।” (पृ. २१०) ___ मुक्ताओं की वर्षा देखकर राजा के मुँह में पानी आना ही लोभ कषाय है और यही अशुद्ध अवस्था है। यह अनर्थ है । यहाँ परिश्रम के महत्त्व का सन्देश दिया गया है । मनुष्य को बाहुबल मिला है । परिश्रम के बल से जीविकोपार्जन करो। बिना परिश्रम किए नवनीत का गोला खाने पर भी वह नहीं पचेगा । अत: मूलभूत दस धर्मों के समस्त आचार यहाँ आ जाते हैं।
कुम्भकार के चेहरे पर तीन रेखाएँ खिंचती हैं- विस्मय-विषाद-विरति की । इन भावों का उत्पन्न होना तथा राजा को शाप मुक्त करना, राजा से क्षमा याचना करना, समस्त मुक्ताओं को भरकर राजकोष में भेज देना इत्यादि पाँच प्रकार- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य के आचरणों में दूसरा आचरण तथा चौथा आचरण है।
कलिकाल में भौतिकता की ललक दिनोंदिन बढ़ती जा रही है । इस पर कटाक्ष किया गया है कि समाज बौद्धिकता के गुणों से सम्पन्न होते हुए भी दूषित मानसिकता लिए हुए है । मुक्ताओं के गुणों के बखान से तात्पर्य आचरण के पाँचवें रूप का उल्लेख है । आदर्शभूत और कषाय से हीन आचरण और व्यवहार का मुक्ताओं में विद्यमान होना, अहंभाव से असम्पृक्त मुक्ता में न राग है न द्वेष और न मद-मान-मात्सर्य है । वे पूर्व विकारों से पूर्ण मुक्त मुक्तात्मा हैं यानी कि 'सिद्ध' हैं । जल/जड़त्व से मुक्त कर मुक्ता-फल बनाना ही जैन दर्शन है । मुक्ता फल बनना ही कर्मों से छुटकारा पाना है। सागर सीपियों को जल में डुबोता है किन्तु वहाँ कितने विषैले जल-जीव हैं। यहाँ इस तथ्य का प्रतिपादन है कि धर्म का मार्ग दुर्गम होता है एवं संसार रूपी सागर में भयंकर विषधर रूपी कषायें विद्यमान हैं।
धरती के मन में तनिक भी किसी को विघ्न पहुँचाने का भाव जाग्रत न होना यानी कि शुचिता, निश्छलता,