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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 365 होता है। सतत अभ्यास एवं स्व-स्वरूप का अज्ञान ही उसे समत्व के केन्द्र से च्युत कर बाह्य पदार्थों में आसक्त बना देता है । वह शरीर, परिवार एवं संसार के अन्य पदार्थों के प्रति ममत्व रखता है और इन पर-पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति में अपने को सुखी या दुःखी मानता है । कवि कहता है :"पाप-पाखण्ड पर प्रहार करो/प्रशस्त पुण्य स्वीकार करो !" (पृ. २४३) उसमें पर' के प्रति आकर्षण या विकर्षण का भाव पैदा होता है (पृ. २७७) । वह पर के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है । इसी रागात्मक सम्बन्ध से वह बन्धन या दु:ख को प्राप्त होता है । 'पर' में आत्मबुद्धि से जीव में असंख्य इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। प्राणी इनकी प्राप्ति हेतु व्याकुल रहता है । यह व्याकुलता ही दु:ख का मूल होता है। कूप में कुम्भकार की परछाई का पड़ना और कूप में तैरती मछली की मूर्जा का ऊर्ध्व हो उठना 'स्व' की पहचान है। 'स्व' की पहचान होते ही वह विरक्त हो उठती है, साथ ही चिन्तित भी-'मेरी जड़ काया कैसे ऊर्ध्वमुखी होगी।' 'निर्जरा' से अभिप्राय होता है कर्मों को आंशिक रूप से सुखा डालना या नाश करना । यह पाप कर्मों को नष्ट करने का सशक्त माध्यम है । मोक्ष की प्राप्ति में संवर तथा निर्जरा दोनों स्थितियाँ परमावश्यक मानी जाती हैं । इनमें इतना ही अन्तर है कि 'संवर' कर्मों की वृद्धि को और आत्मा के अन्दर इनके प्रवेश को रोकता है तथा 'निर्जरा' एकत्र किए गए कर्मों को आंशिक रूप से सुखा कर समाप्त कर देती है। कुम्भ को खुली धूप में रख कर सुखाना निर्जरा की स्थिति ही मानी जानी चाहिए। निर्जरा तभी सम्भव हो सकती है जब जीवन में संयम एवं सादगी हो यानी तप किया जाए। तप को जैन धर्म में अत्यधिक प्रमुखता दी जाती है । प्रत्येक आत्मा साधना और तपश्चर्या के द्वारा मुक्तात्मा बन सकती है। ऐसी स्थिति में आत्मा की मोक्ष रूप यानी शरीर – नोकर्म एवं कर्मों का पूर्णत: अभाव तथा पूर्ण विश्वास, पूर्ण ज्ञान और पूर्ण चारित्र रूप 'सिद्धि' की दशा होती है । 'सिद्ध' शरीर रहित होकर 'सिद्धि' (सिद्ध शिला के ऊपर) में विराजते हैं। ज्ञान की दृष्टि से सिद्ध तथा शुद्ध आत्मा में भेद नहीं होता है। मोक्ष की वास्तविक साधना केवल तपस्वी ही कर सकता है। इनकी पाँच स्थितियाँ हैं जिनका समन्वित नाम 'पंच परमेष्ठी' है। ये परमेष्ठी अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु होते हैं। इनमें से सिद्ध मोक्ष दशा को प्राप्त कर चुके हैं, शेष चार उसकी प्राप्ति हेतु साधनाशील होते हैं। जैन धर्म में संवर और निर्जरा दोनों ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जैन धर्म में ज्ञान तथा आचार-सिद्धान्तों का निर्माण इन्हीं दो तत्त्वों को लेकर किया गया है। कर्मों की धारा को आत्मा में प्रवेश से रोकने की साधना को छ: वर्गों में विभाजित किया गया है। तीन अंशों वाली 'गुप्ति' (वपुषा-वचसा-मनसा)-अवा में जलने वाली लकड़ी के माध्यम से प्रकट होती है। पाँच अंशों वाली समिति'-कुम्भकार का यूँ सोचना कि कहीं लकड़ी कुपित न हो जाए, अत: उसकी जागरण की या सावधानता, कुम्भकार के व्यवहार-वार्तालाप-प्रवचन आदि इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं कि कुम्भकार पाँचों समिति यानी चलने में सावधानता, खाने में सावधानता, जगत् के व्यवहारों में सावधानता , बोलने में सावधानता एवं मल-मूत्र आदि त्याग में सावधानता का विचार रखता है। कुम्भकार का यत्नपूर्वक मछली को कुएँ के जल में वापस डालना, रस्सी की गाँठ खोलना आदि इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं। मूलभूत दस धर्मो' में पाए जाने वाले आचार 'मूकमाटी' में बड़ी कलात्मकता से प्रस्तुत किए हैं जो कि क्षमा, विनय (मार्दव), निश्छलता (आर्जव), पवित्रता (शौच), सत्य, संयम, जीवन में सादगी (तप), त्याग-भावना, अनासक्ति (आकिंचन्य) एवं शुचिता (ब्रह्मचर्य) रूप है । जब अग्नि अवा में नहीं जलती तो कुम्भ उससे कहता है कि चाहे मुझ में क्षमा, विनय, निश्छलता, पवित्रता, सत्य, संयम, सादगी, त्याग-भावना एवं अनासक्ति क्यों न हों, फिर भी मैं निर्दोष नहीं हूँ। जब तक तुम मेरे दोषों को नहीं जलाओगी तब तक मैं जिलाया नहीं जा सकता, मुझमें दसवाँ मूलभूत गुण 'शुचिता' नहीं आ सकती (पृ. २७६-२७७) । अग्नि के लगते ही कुम्भ के मुख, उदर आदि में धूम ही धूम
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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