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364 :: मूकमाटी-मीमांसा
करना ही इसके स्वरूप एवं रहस्य का उद्घाटन करना है (पृ. २९०)। जैन-दर्शन-शास्त्र में प्राकृतिक या भौतिक पदार्थ को ‘पुद्गल' कहा जाता है। 'काल' अरूपी है । इसे अ-जीव की कोटि में गिना जाता है (पृ. १६१) ।
अच्छे कर्मों का फल ही 'पुण्य' है। पुण्य प्राप्त करने के अनेक उपाय हैं। स्वस्थ ज्ञान, जिससे जीवन दर्शन का ज्ञान होता है :
"स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है ।/अनेक संकल्प-विकल्पों में व्यस्त जीवन दर्शन का होता है ।/बहिर्मुखी या बहुमुखी प्रतिभा ही
दर्शन का पान करती है।” (पृ. २८८) 'पाप' का आविर्भाव तभी होता है जब पाँच शिक्षाओं पर न चला जाए। जैन धर्म में पापों के अनेक रूप मिलते हैं। 'मूकमाटी' में स्थान-स्थान पर पाप की गतिविधियों की प्रतीति हुई है:
"राजा के मुख में पानी !!/अपनी मण्डली ले आता है राजा
मण्डली वह मोह-मुग्धा-/लोभ-लुब्धा,/मुधा-मण्डिता बनी।" (पृ. २११) जैन मत में 'आसव' की पर्याप्त चर्चा हुई है। 'आसव' यानी कि जीव द्वारा कर्मों का एकत्रीकरण । जैनागमों का कथन है कि जीव द्वारा कर्मों का करना पाप है, उससे बन्धन में वृद्धि होती है, और कोई लाभ भी नहीं होता। जैसे नाव के अन्दर छेद होने से पानी आकर एकत्र हो जाता है, ऐसी स्थिति में छेद को बन्द करना ही संवर' की साधना है।
“अपार सागर का पार/पा जाती है नाव/हो उसमें
छेद का अभाव भर!" (पृ. ५१) आस्रव भी दो प्रकार के हैं- शुभ-अशुभ । शुभ आस्रव यानी कि : "लघुता का त्यजन ही,/गुरुता का यजन ही/शुभ का सृजन है" (पृ. ५१)। कंकरों को जब शिल्पी ज्ञान प्रदान कर चुकता है तो उन्हें ही "माटी की शालीनता/ कुछ देशना देती-सी" तथा "महासत्ता-माँ की गवेषणा-सी" (पृ. ५१) प्रतीत हुई है।
पाप कर्मों का संचय करने वाला अशुभ आस्रव है। जीव को जल की तरल सत्ता से यानी कि सांसारिक आकर्षणों के कारण घबराहट का न होना, संवर की स्थिति से जीव का न डरना, क्योंकि जीव का अधडूबे हिमखण्ड की स्थिति में ही अशुभ-आस्रव की स्थिति है।
संवर का अर्थ होता है कर्मों को वशीभूत कर लेना । जिस तत्त्व से कर्मों का आत्मा में प्रवेश करना रुक जाता है, उसे 'संवर' कहा जाता है (पृ. ५१-५२)। यह संवर की स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी की सहायता से इन्द्रियाँ वश में की जाती हैं और आत्मसंयम किया जाता है। इसके अभाव में मुक्ति की प्राप्ति सम्भव नहीं। कुम्भ की पूर्णता या मुक्ति रूप तब दिखाई देता है जब सात बार घट को बजाया जाता है। ये सात स्वर ही संवर की स्थिति है। इन सप्त स्वरों का भाव समझना ही सही संगीत में खोना है, सही संगी को पाना है।
जीव (आत्मा) और पुद्गल (प्राकृतिक परमाणुओं) के संयोग को 'बन्ध' कहा जाता है । राग-द्वेष इत्यादि मनोविकारों में लिप्त आत्मा ऐसे पदार्थों को अपनाता है, जिनसे कर्म बनते रहते हैं। बन्ध की उत्पत्ति पाँच कारणों से होती है- मिथ्या दर्शन, वैराग्य का अभाव, अ-सावधानता, कषाय और योग के सद्भाव में आत्मा कर्मों के जाल में फँसकर बारम्बार शरीर धारण करता हुआ दुःखी रहता है।
शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के चलते चेतन बाह्य आकर्षणों से प्रभावित होने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता है। ऐसी एकान्त धारणा से अध्यात्म की विराधना होती है, परिणामस्वरूप चेतन जीवनोपयोगी अन्य पदार्थों में आसक्त