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368 :: मूकमाटी-मीमांसा
“सत्ता शाश्वत होती है/सत्ता भास्वत होती है बेटा!
रहस्य में पड़ी इस गन्ध का/अनुपान करना होगा।" (पृ. ७) सेठ का परम पुरुष (साधु) से प्रश्न करना कि क्या गति-प्रगति-आगति तथा नति-उन्नति-परिणति इन सबका नियन्ता काल को माना जाए ? प्रति पदार्थ स्वतन्त्र है, कर्ता स्वतन्त्र होता है-यह सिद्धान्त सदोष है क्या ? 'होने' रूप क्रिया के साथ-साथ करने' रूप क्रिया भी तो कोष में है ना (पृ. ३४८) ? जैन धर्म में पुरुषार्थ के सूत्र को पकड़कर यह माना जाता है कि 'पुरुष' यानी आत्मा-परमात्मा है तथा 'अर्थ' यानी प्राप्तव्य-प्रयोजन है । आत्मा को छोड़कर सब पदार्थों को विस्मृत करना ही सही पुरुषार्थ है (पृ. ३४९)।
बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रहों से नाता तोड़कर, नग्न बनकर वैराग्यभावों के साथ साधना करके संसार-बन्धन से मुक्ति पाई जा सकती है। जैन धर्म की एक शाखा यह मानती है कि जब तक जीव को नग्न होते हुए भी शरीर की नग्नता का भान बना रहता है, इस प्रकार के भान के रहने तक पूर्ण वैराग्य/अध्यात्म की स्थिति नहीं होती । मोक्ष की प्राप्ति तभी सम्भव है जब मनुष्य संसार की हर वस्तु को त्याग कर समस्त बन्धनों एवं मन में एकत्रित सांसारिक विषयवासनाओं के भोग के संस्कारों से छुटकारा पा ले, वही 'निर्ग्रन्थ' यानी कि ग्रन्थिहीन कहलाएगा। निर्ग्रन्थपन्थी किसी भी जीव की हिंसा नहीं करते । रसना रस्सी से कहती है कि यदि स्वामी रस्सी की गाँठ नहीं खोलते तो गाँठ गिर्रा पर आकर झटका खाएगी और बालटी का पानी छलककर कूप में जा गिरेगा। इस कारण से कूप में विचरण करने वाले जीवों को चोट तो लगेगी ही, साथ ही उनकी अकाल मृत्यु भी हो सकती है :
"निर्ग्रन्थ-दशा में हो/अहिंसा पलती है,
पल-पल पनपती,/"बल पाती है।" (पृ. ६४) जैन धर्म अनीश्वरवादी है यानी ईश्वर संसार का स्रष्टा है, इस तथ्य को अस्वीकृत करता है । वह इस विचार पर आग्रह करता है कि आत्माएँ संख्या में अनन्त हैं। जीव का ब्रह्म में लीन होना मोक्ष नहीं है, बल्कि मोक्ष वह अवस्था है जिसमें आत्मा स्वयं पूर्णता प्राप्त कर लेता है । माटी का मछली को भव्यात्मा कहकर सम्बोधन करना इसी विचार का प्रतिपादन है । कूप में 'दयाविसुद्धो धम्मो' की ध्वनि से प्रतिध्वनि का प्रस्फुटित होना आत्मा का प्रकाशमय और आनन्दमय होना है।
जैन धर्म कर्मवादी है । इसका मूल ध्येय मनुष्यों/जीवों को कर्मों से परिष्कृत करना एवं उन्नत बनाना है, जिसे हम कुम्भ बनने की प्रक्रिया में सम्पूर्ण महाकाव्य में देखते हैं। इसके साथ-साथ जैन गृहस्थ को पंच व्रतों (अणुव्रतों) का प्रण लेना पड़ता है-अहिंसा ( पृ. ३६९-३७०), सत्य (पृ. ३७१), अस्तेय (पृ. ३७८), ब्रह्मचर्य (पृ. ३८४) और अपरिग्रह (पृ. ३८५) । अपरिग्रह के द्वारा गृहस्थ को यह प्रण लेना पड़ता है कि वह अपनी आवश्यकता से अधिक संपत्ति अपने पास नहीं रखेगा, उसे दान में देगा (पृ.३८७,४६७) । मत्कुण के कथन के माध्यम से परोक्ष रूप से इसी तथ्य पर प्रकाश डाला गया है:
"इनके उदार हाथों में/पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं,...
जो कुछ दिया जाता/या देना पड़ता/वह दुर्भावना के साथ ही।" (पृ. ३८७) कभी-कभी मनुष्य जब एकान्त, विपरीत, वैनयिक, संशय एवं अज्ञान रूप मिथ्यात्व के वशीभूत हो स्खलन की स्थिति को प्राप्त होता है तो बोधि की चिड़िया फुर्र हो जाती है (पृ. १२) । इसमें कर्म चेतना की ओर जीवन का ध्यान खींचा गया है : “आयास से डरना नहीं, आलस्य करना नहीं" (पृ. ११) के कथन द्वारा परिणमनशीलता की