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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 355 तरह जीवन के विविध पर्यायों/स्थितियों में आपदाओं को कुचलते हुए साधक विशुद्धि के क्षेत्र में आगे बढ़ जाता है और अनेक गुत्थियों को सुलझा लेता है। कंकर माटी में मिलता नहीं, फूलता नहीं, जल धारण करने की उसमें क्षमता नहीं; इसलिए वह अभव्य/निरर्थक की तरह फेंक दिया जाता है। शिल्पी जल छान कर बालटी से शेष जल को आहिस्ता - आहिस्ता कुएँ में वापिस डालता है। इसी प्रसंग में कवि ने सहधर्मी में ही वैरभाव उत्पन्न होने का प्रसंग उपस्थित किया है, जिससे वह कहना चाहता है कि एक समाज के बीच ही अधिकांश झगड़े हुआ करते हैं। एक समाज के दूसरे समाज के साथ झगड़े अपेक्षाकृत कम होते हैं। इसी के साथ कवि ने यह भी स्पष्ट किया है कि किस प्रकार मछली प्रलोभन के वशीभूत होकर पानी से बाहर तो आ जाती है, पर पानी के बिना वह अपने जीवन को बचा भी नहीं पाती । यह सोच कर शिल्पी उसे कुएँ में वापिस छोड़ देता है । यह रूपक स्पष्ट करता है कि व्यक्ति कितना भी विशिष्ट क्यों न हो, समाज से बाहर रह कर अपना विकास नहीं कर सकता । उसके जीवन का धर्म दया होना चाहिए- "दया-विसुद्धो धम्मो" (पृ. ८८)। स्वभाव और विभाव की मीमांसा इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है : “अन्त समय में/अपनी ही जाति काम आती है/शेष सब दर्शक रहते हैं दार्शनिक बन कर !/और/विजाति का क्या विश्वास ? आज श्वास-श्वास पर/विश्वास का श्वास घुटता-सा देखा जा रहा है"प्रत्यक्ष !" (पृ. ७२) महाकाव्य का दूसरा भाग व्यक्तित्व के निर्माण का है, जिसमें उसका अहं विसर्जित हो जाता है और वह अपने आराध्य को समर्पित हो जाता है । इस प्रसंग में कवि ने मिट्टी में पानी का मिश्रण किया और पानी ने माटी में नए प्राण फूंके । माटी फूल गई और फिर शिल्पी उसे सँभालने आया। उसने देखा, माटी में एक टूटा, अधमरा काँटा पड़ा हुआ है, जिसमें जीने की तो आशा है पर मन से माया दूर नहीं हुई । यही प्रसंग आगे बढ़ता जाता है और काँटे तथा फूल के बीच संवाद उपस्थित होता है । काँटे के बिना फूल का अस्तित्व ही क्या ? यह इसका प्रतीक है कि जीवन संघर्ष की कहानी है और संघर्षों से ही जीवन विशुद्धि की ओर बढ़ता है। शिल्पी माटी को पैर से रौंदता है और उसे घड़े के अनुकूल बनाता है। माटी शिल्पी के पैरों से कुचली जाने पर भी मौन रहती है और उसका मन मान-माया से मुक्त रहता है । इस सन्दर्भ में कवि ने बड़ी सुन्दर और सरस शैली में नव रसों के स्वरूप को उद्घाटित किया है । इस बीच माटी का आशा-पाश समाप्त हो जाता है और शिल्पी उसे चाक पर चढ़ा देता है । कुम्भकार का यह चक्र संसार का संसरण है, जन्म-मरण की प्रक्रिया है । आचार्यों ने इसे अरहट की भी उपमा दी है। काव्य का तृतीय खण्ड कुम्भ की परीक्षा से सम्बद्ध है । वह आग में पकाया जाता है। एक ओर उसे अवा की अग्नि का सामना करना पड़ता है तो दूसरी ओर सूर्य का और बादलों का प्रकोप सहन करना पड़ता है । इस प्रसंग में कवि ने परम्परा से अलग हट कर महिलाओं की प्रशंसा की है और उनकी शक्ति को पहचाना है । इसके आगे माटी को मेघ, बिजली और ओलों का भी सामना करना पड़ता है । इन सबके बावजूद माटी का घड़ा अडिग रहता है, भस्म नहीं होता । घड़े की ये सारी परीक्षाएँ, जीवन की परीक्षाएँ हैं, जिसमें साधक को उत्तीर्ण होना आवश्यक है। ___ चतुर्थ खण्ड में घड़े की अन्तिम परीक्षा है । शिल्पी अवा का निर्माण करता है, बबूल की लकड़ियाँ लगाता है । और फिर उसमें कुम्भ को अग्नि-परीक्षा देनी पड़ती है। अग्नि से उठा हुआ धुआँ (तामस) कुम्भ खा लेता है और उससे उसमें समता आ जाती है। यह समता वर्गातीत अपवर्ग का प्रतीक है। इसके बाद कुम्भ को बाज़ार में रखा जाता है। वहाँ एक सेठ का नौकर परख करके उसे प्राप्त कर लेता है और उसका उपयोग साधु-सन्त के आहार दान में पड़गाहने हेतु सेठ मंगल कलश के रूप में करता है । यही कुम्भ नदी की बाढ़ से परिवार सहित सेठ को बचाता है। सभी कुम्भ के
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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