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________________ 'मूकमाटी' : अधुनातम आध्यात्मिक रूपक महाकाव्य डॉ. पुष्पलता जैन हिन्दी साहित्य में छायावादी कवि 'प्रसाद' की 'कामायनी' (१९३५ ई.), युगचारण 'दिनकर' की 'उर्वशी' (१९६१ ई.), तथा लोकमंगल के वंशीवादक पन्त' का लोकायतन' (१९६४ ई.)- ये तीनों काव्य अध्यात्म-प्रबन्धत्रयी के रूप में प्रस्थापित हुए हैं। संघीय चेतना के स्व-पर उन्नायक आचार्य विद्यासागरजी ने इसके बाद अपनी अनूठी आध्यात्मिक कृति 'मूकमाटी' (१९८८ ई.) की रचना कर उक्त प्रस्थानत्रयी की मणिमाला में एक और अपरिमित ज्योतिर्मयी मणि को आकलित कर दिया है। प्रतिभाप्रसूत इस सुन्दर आकलन को हिन्दी साहित्य अपनी धरोहर के रूप में सदैव एक दीपस्तम्भ मानता रहेगा। हमने उपर्युक्त शीर्षक में इस महाकाव्य के तीन विशेषण जान-बूझ कर दिए हैं- अधुनातम, आध्यात्मिक और रूपक । यह कृति अधुनातम इसलिए है कि इसमें परम्परा का निर्वाह एक सीमा-विशेष तक ही किया गया है। और फिर परम्परा भी तो गतिशीलता लिए रहती है; उसका एक क़दम यदि सीमा में है, तो अगला कदम आधुनिकता की देहली पर खड़ा हो जाता है और वहीं से इतिहास के परिप्रेक्ष्य में वह सम्पूर्ण मानव जाति की भलाई के लिए अथक प्रवचन, वचन नहीं, देना प्रारम्भ कर देता है ('मूकमाटी', पृ. ४८६)। इसे मात्र काव्य कहा जाए या महाकाव्य, आध्यात्मिकता उसमें एड़ी से चोटी तक देखी जा सकती है, वह भी रूपक के माध्यम से । माटी किस तरह कुम्भकार के निमित्त से मंगल कलश की स्थिति तक पहुँचती है, इस छोटी-सी घटना को सहृदय कवि ने बड़ी सुन्दर और सशक्त शैली में गूंथने का सफल प्रयास किया है । उसने परम चेतना के आध्यात्मिक सन्देश और विकास की गाथा को रूपक माला से ऐसा संयोजित कर दिया है, जहाँ कवि का गीत-संगीत मधुरिम लहरों में लहरा उठा है। उपर्युक्त आध्यात्मिक प्रबन्धत्रयी के विस्तृत फलक पर छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता के तत्त्वों का प्रस्फुटन हुआ है, पर 'मूकमाटी' उनसे भी एक क़दम आगे बढ़ी दिखाई देती है, जिसमें आचार्यश्री ने चिकनी माटी की मूकता और उसमें निहित अनगिनत सम्भावनाओं को कुम्भकार के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि जिससे हर प्राणी में छिपी हुई शक्ति उद्घाटित हो गई है (पृ.७) । इसमें जीवन की अथ से लेकर इति तक की ग्राह्य यात्रा और उसके पडावों को बड़ी ही आकर्षक शैली में प्रस्तत किया है, इसलिए यह अनठा महाकाव्य है। समूचे काव्य के अध्ययन से अध्येता इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि कवि को रूपक तत्त्व अधिक प्रिय है। मूकमाटी अपने-आप में एक रूपक बनकर सामने आती है और सरिता, कुम्भकार, कंकर आदि को माध्यम बना कर प्रस्तुत से अप्रस्तुत और अप्रस्तुत से प्रस्तुत की अभिव्यंजना करती है । इस अभिव्यंजना में साधक की आस्था भरी साधना निकष बन जाती है, जिसकी पृष्ठभूमि में सम्यक् आचरण और सम्यक् ज्ञानपूर्वक तप प्रतिफलित होता है और इस प्रतिफलन में करुणा और मुदिता जैसे शुभ भाव अच्छी तरह से जुड़ जाते हैं। ___कवि ने काव्य को चार खण्डों में विभाजित किया है । ऐसा लगता है कि माटी की विकास कथा के ही चार सोपान कर दिए हों। प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में कवि ने सर्वप्रथम सरिता तट की माटी को प्रकृति के परिवेश में प्रस्तुत किया है, जहाँ वह माँ धरती से एक ज्वलन्त प्रश्न पूछती है कि उसकी इस पर्याय/जीवन यात्रा का अन्त कब होगा ? यह प्रश्न हर सांसारिक प्राणी के मन में उस समय उभरता है, जब वह सरिता की कठोर जीवन लहरों के समान उत्तप्त संघर्षों से जूझता है । यह प्रश्न उसकी चेतना में ऐसा बैठ जाता है कि प्रश्न के उत्तर को खोजने के लिए वह साधु-सत्संगों को एक कुम्भकार के रूप में ग्रहण कर लेता है। उसकी आस्था धीरे-धीरे बलवती होती जाती है और चेतन की सृजनशीलता में कुम्भकार की सहायता से वह आगे बढ़ती चली जाती है । जिस प्रकार माटी को जलतत्त्व के मिश्रण से चिकना कर दिया जाता है और उसमें से वर्ण-संकर के रूप में कंकर-पत्थर निकाल कर फेंक दिए जाते हैं, उसी
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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