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356 :: मूकमाटी-मीमांसा सहारे से नदी के पार हो जाते हैं। इस खण्ड में कथा को आगे बढ़ाने के लिए साधु की आहार प्रक्रिया, सेठ के विविध रूप, मच्छर-मत्कुण, आतंकवाद जैसे तत्त्वों को भी समाहित किया गया है।
___ समूचा काव्य मुक्त छन्द में लिखा गया है, इसलिए पढ़ने में एक प्रवाह बना रहता है; परन्तु वह प्रवाह तब रुक जाता है जब कवि किसी प्रसंग को अनावश्यक रूप से ला देता है अथवा प्रसंग का अनावश्यक रूप से विस्तार करने लगता है। उदाहरण के तौर पर सेठ द्वारा आहार दान की प्रक्रिया।।
'मूकमाटी' का कवि प्रकृति का सुन्दर चितेरा है; उसकी कल्पना में माटी प्रकृति प्रदत्त तत्त्व है, जिसके वर्णन से ही काव्य प्रारम्भ होता है । सरिता तट की माटी के प्रसंग में ऊषाकाल का वर्णन देखिए, कितनी गहराई है कवि कल्पना में:
"प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है और/सिन्दूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा-/भाई है, भाई ..! लज्जा के घूघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह;/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को
पाँखुरियों की ओट देती है ।" (पृ. १-२) ऐसा लगता है कवि प्रकृति की गोद में बैठकर अपने आपको अधिक सजीला पाता है । शीतकालीन सूर्य की किरणें उसे तब अधिक भाती हैं जब वे पेड़-पौधों की डाल-डाल पर पड़ने लगती हैं। दिन की सिकुड़न डरती-बिखरतीसी लगती है और रात के विस्तार में भय, मद और अघ का भार दिखाई देता है (प.९०-९१) । कदाचित यही कारण है कि आचार्यश्री को माटी का प्रयोग बहुत भाता है । उन्होने आहार के सन्दर्भ में प्राकृतिक चिकित्सा की बहुत पैरवी की है। उनकी दृष्टि में हर मर्ज की दवा माटी का प्रयोग है। यहाँ तक की हाथ-पैर की टूटी हुई हड्डी भी उससे जुड़ जाती है। पेय के रूप में दूध और तक्र तथा मधुर पाचक सात्त्विक भोजन के रूप में कर्नाटकी ज्वार का रवादार दलिया अधिक अच्छा लगता है (पृ. ४०५ से ४०७)। वे इसे अहिंसापरक चिकित्सापद्धति मानते हैं और ध्यान-साधना के लिए उपयोगी मानते हैं।
___ कवि के प्रकृति प्रेम के साथ ही हमारा ध्यान उनकी काव्यात्मक प्रतिभा की ओर भी आकर्षित होता है। आदि से अन्त तक यह काव्य शब्दार्थालंकारों से गुंथा हुआ है। शिल्पी जब माटी को पैरों से रौंदता है तो कवि उस सन्दर्भ में वीर, हास्य, रौद्र आदि नव रसों का सुन्दर कल्पनाओं से भरा वर्णन करता है और उसकी आकर्षक पारमार्थिक व्याख्या भी (पृ. १२९-१६०) । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक की गोद में यमक और अनुप्रास अलंकारों की छटा देखते ही बनती है। शब्दों के अन्वयीकरण पद्धति में कवि अधिक माहिर है । जैसे-अवसान, अब+शान (पृ. १), कम+बल, कम्बल (पृ. ९२), नमन, न+मन, नम+न (पृ. ९७), राजसत्ता, राजस+ता (पृ. १०४), पावनता, पाँव+नता (पृ. ११४), धोखा, धो+खा (पृ. १२२), परखो, पर+खो (पृ. १२४), स्वप्न, स्व+प्+न (पृ. २९५) आदि । इस काव्य में लोकोक्तियों और कहावतों का सुन्दर विश्लेषण भी हुआ है। उदाहरण के तौर पर- "बहता पानी और रमता जोगी" (पृ. ४४८), "बिन माँगे मोती मिले/माँगे मिले न भीख'' (पृ. ४५४), "बायें हिरण दायें जाय-लंका जीत/राम घर आय' (पृ. २५), "मुँह में राम/बगल में छुरी” (पृ. ७२) आदि।
कवि की मातृभाषा कन्नड़ है, लेकिन हिन्दी का यह विशाल महाकाव्य दे कर उसने यह सिद्ध कर दिया है कि हिन्दी कितनी सरल और सुबोध है । कवि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश जैसी प्राचीन भाषाओं का पण्डित तो है ही पर उसे मराठी, बंगला तथा अंग्रेजी भाषाओं का भी गहन अध्ययन है । प्रस्तुत महाकाव्य में इन भाषाओं के जहाँ-तहाँ कतिपय