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346 :: मूकमाटी-मीमांसा
आचार्यजी ने बादल, समुद्र, चन्द्र आदि के बारे में जो मौलिक सन्दर्भ उठाए हैं, वे अद्वितीय हैं। शब्दों की इतनी मितव्ययता, प्रभविष्णुता और युक्तियुक्तता उनकी सम्प्रेषणीयता में सन्निहित है : "अन्धा नहीं, / आँख वाला ही भयभीत होता है / परम- सघन अन्धकार से " (पृ. २३२); "हिंसा की हिंसा करना ही/अहिंसा की पूजा है" (पृ. २३३), इसलिए माँ का मंगलमय आशीर्वचन है : "पाप- पाखण्ड पर प्रहार करो / प्रशस्त पुण्य स्वीकार करो" (पृ. २४३ ) । कवि की स्पष्ट धारणा है कि कर्तव्यनिष्ठा ही अपनी पराकाष्ठा पर सर्वमान्य प्रतिष्ठा देती है। विकास यात्रा की यही निरन्तरता और साधना की ऊर्ध्वमुखी चेतना अन्ततः भेद से अभेद की ओर ले जाती है।
चतुर्थखण्ड में 'अवा के बीचों-बीच कुम्भ समूह व्यवस्थित' होता है । लकड़ी के माध्यम से आचार्य विद्यासागर आज के गणतन्त्र की वास्तविकता पर सहज भाव से कह जाते हैं, जो यह सिद्ध करता है कि उन्हें आज की आग का पूरा अंदाज़ है :
“प्राय: अपराधी -जन बच जाते / निरपराध ही पिट जाते,
और उन्हें / पीटते-पीटते टूटतीं हम । / इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या / मनमाना 'तन्त्र' है !” (पृ. २७१ )
अग्नि-परीक्षा के बिना मुक्ति कहाँ ? कवि ने मस्तक को दर्शन का स्रोत कहा है और हृदय को अध्यात्म का । दर्शन के बिना अध्यात्म जीवन सम्भव है पर बिना अध्यात्म के दर्शन सम्भव नहीं । दर्शन संकल्पों - विकल्पों में खोया है जबकि अध्यात्म स्वस्थ ज्ञान है । कवि ने 'सारेगमप'ध' 'नि' का सम्यक् विश्लेषण करते हुए शिल्पी के शिल्पन चमत्कार का हृदयग्राही वर्णन किया है। ज्योति का सम्मान और ज्योति का दान समस्त दुर्दिनों का निवारक
है।
कलश के जल का गुरु-पद- प्रक्षालन हेतु प्रयोग कुम्भ-कलश को जीवन का कितना बड़ा सौभाग्य देता है :
"जो कुछ बचा खुचा कालुष्य / सर्वस्व स्व-पन को / यहीं पर अर्पण किया :
'शरण, चरण हैं आपके, / तारण तरण जहाज,
भव-दधि तट तक ले चलो / करुणाकर गुरुराज' !” (पृ. ३२५)
सन्त कवि का प्रगतिशील चिन्तन पाणिग्रहण संस्कार को धार्मिक संस्कृति का संरक्षक और उन्नायक घोषित करता हुआ आज कल के 'प्राण- ग्रहण' पर भी अपनी टिप्पणी देता है। संवादमय महाकाव्य और नाटकीयता से सम्बद्ध पात्र संयोजन इस रचना की जान है । गहन गम्भीर वार्तालाप अपने मूल आशय के सम्प्रेषण में कितना सशक्त और सहज हो सकता है, इसका उदाहरण है – 'मूकमाटी' ।
'जीवन उदारता का उदाहरण बने' यह है चेतना को चैतन्य बनाने की चरम सीमा । "प्रीति बिना रीति नहीं और/रीति बिना गीत नहीं" (पृ. ३९१ ) - यही संगीतमय जीवन की लय है जो विश्व मानवता के लिए साध्य है। चाहे पुरुष और प्रकृति के सम्बन्धों की चर्चा हो या पथ्य के सही पालन की आवश्यकता; चाहे श```स ं'ष' बीजाक्षरों का परिचय हो या सत्पुरुषों से मिलने वाले वचन - व्यापार का प्रयोजन हो; चाहे अपने ही भीतर असन्तुष्ट दल की स्थिति हो या आतंकवाद की आँधी हो, जीवन के वैविध्य को, उसकी अगाधता को जितना इस महाकाव्य में स्पर्श किया गया है शायद समकालीन दूसरी रचनाओं में नहीं। यह सम्पूर्ण रचना ही जीवन के रोगों का शमन है । कवि ने दण्ड संहिता और प्राण दण्ड पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे मनुष्य की पदलिप्सा और आतंकवाद को समझाते हुए लिखते