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मूकमाटी-मीमांसा :: 347
हैं : “पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं" (पृ. ४३४); “जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती यह" (पृ. ४४१)।
कविता दरअसल संश्लेषण है । विश्लेषण हमेशा अधूरापन ही प्रदर्शित करेगा। इसलिए कहा जाता है कि एक उत्कृष्ट रचना समझाई नहीं जा सकती, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और 'मूकमाटी' ऐसी ही उत्कृष्ट रचना
निष्कर्षत: 'मूकमाटी' का आधार फलक व्यापक है । इसमें केवल जीवन-जगत् की मीमांसा नहीं है अपितु संवेदना और वैचारिकता के स्तर पर भारतीय चिन्तन की भावभूमि है । एक गतिशील मानवीय आस्था, जो भारतीय अस्मिता के नैरन्तर्य की समझ से विकसित है, तपश्चर्या से सिंचित है, कर्तव्यकर्म की आधारभूमि है, समष्टि में जीती है, अध्यात्म और दर्शन को अपने भीतर रचाती-पचाती है-यह 'मूकमाटी' का प्रतिपाद्य है । दर्शन या अध्यात्म जब कविता में ऊपर से आरोपित हो तब काव्य कला को क्षति पहुँचती है। जब वह भीतर से संवेदना का अंश बनकर आए तब जिज्ञासाओं का समाधान करती हुई काव्यात्मक ऊँचाइयों को छूने लगती है। श्रीमती शशि तिवारी की महाकाव्यात्मक कृति 'चिरविहाग' भी इस दिशा में उल्लेखनीय है, जहाँ सन्त्रस्त मानवता की मुक्ति हेतु शिव शक्ति से निवेदन किया गया है। फिर भी जो समग्रता, कसाव, विश्लेषण और उठान 'मूकमाटी' में है वह 'चिरविहाग' में नहीं । प्रसाद की 'कामायनी' के पश्चात् एक अभिनव कृति 'मूकमाटी' ही दिखलाई देती है जिसमें मनुष्य के सत्-चित्-आनन्द की अभिव्यक्ति विभिन्न सोपानों पर निखार पाती हुई पराकाष्ठा पर पहुंची है। माटी से उठकर मंगल कलश तक का चरम विकास गुरु-चरणों में झुककर अपने अहम् को विगलित करता हुआ सार्थक जीवन की चरितार्थता बन जाता है। कालजयी कृतियों का यही वैशिष्ट्य है।
पृ. ५० तन और मन को तप की आग में
तपा-तपकिर-------- उार सनम
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