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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 345 कवि ने अपरिग्रह, अहिंसा और मैत्री जैसे जीवन के विधायक तत्त्वों पर प्रकाश डाला है । बोध के बिना शब्दों में अर्थ की सही व्याप्ति नहीं होती और बोध का विकसित फूल ही परिपक्व होकर शोध के फल देता है । कवि ने इस खण्ड में स्थिर मन के महामन्त्र को रेखांकित करते हुए मोह के स्वरूप को भी दर्शाया है । कहीं-कहीं आचार्यजी की साहित्यिक मान्यताएँ भी उजागर हुई हैं। उनकी दृष्टि में साहित्य हित से युक्त-समन्वित होता है और शिल्पी के शिल्पक साँचे में साहित्य शब्द ढलते हैं। प्रवचनकार पौराणिक आख्यानों के माध्यम से वर्तमान को सुलझाता है । अतीत का अनुभव लेखन का आधार बनता है । आचार्यजी ने आस्था वाली सक्रियता को निष्ठा कहा है । उन्होंने हास्य के उथलेपन और स्थितप्रज्ञ की भूमिका संकेत रूप में दर्शाई है। दरअसल व्यक्ति की दृष्टि यानी चीज़ों को देखने का नज़रिया ही सोच और समझ में अन्तर स्थापित करता है : "अगर सागर की ओर/दृष्टि जाती है,/गुरु-गारव-सा कल्प-काल वाला लगता है सागर;/अगर लहर की ओर दृष्टि जाती है,/अल्प-काल वाला लगता है सागर।/एक ही वस्तु अनेक भंगों में भंगायित है/अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित !" (पृ.१४६) विद्यासागरजी के चिन्तन में मानवीय सदाशयता और समष्टि चेतना की सारगर्भित भूमिका है जो जीवन का मूलाधार है- “रे जिया, समष्टि जिया करो"(पृ. १४९)। कवि के द्वारा प्रस्तुत करुण तथा शान्त रस की व्याख्याएँ जीवन के सही मर्म का उद्घाटन करती हैं और हमारे मनोविकारों को संयत भी : “करुणा-रस उसे माना है, जो/कठिनतम पाषाण को भी मोम बना देता है,/...शान्त-रस का क्या कहें, संयम-रत धीमान को ही/ ओम्' बना देता है।" (पृ.१५९-१६०) अनेकान्तवाद दूसरों के मूल्यांकन को सम्यक् महत्त्व देता है। सिंह विवेक और श्वान संस्कृति को भी आचार्यश्री ने चर्चा का विषय बनाया है और विनाश के क्रम में रति की प्रमुखता को दर्शाया है। तीसरे खण्ड में कवि ने पर-सम्पदा हरण रूप संग्रह को मोह-मूर्छा का अतिरेक कहा है। धरती सर्व-सहा है और यही सन्तोष पथ है । सीप ही स्वाति जल को मुक्ता बनाती है । आचार्यश्री ने स्त्री जाति की आदर्श विशेषताएँ निरूपित करते हुए उन्हें करुणा की कारिका और मिलनसारी मित्र कहा है। अबला समस्याशून्य'समाधान है। 'कुमारी' समस्त लौकिक मंगलों में प्राथमिक मंगल है। 'स्त्री' समशील संयम के साथ पुरुष को कुशल संयत बनाती है। 'दुहिता' अपना हित और पति का हित साधने वाली है। कवि ने ये व्याख्याएँ शब्दों की भीतरी तहों तक जाकर प्राप्त की हैं। यह भाव योग, विचार योग की देन है तथा एक सन्त की लोकहितैषी कल्याणमयी दृष्टि का परिचायक है। ___ युगजीवन की विभीषिकाओं और साम्प्रतिक परिवेश में पल रही दुष्प्रवृत्तियों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने सज्जन साधुओं के सात्त्विक रोष को भी श्रेयस्कर बताया है : "आवश्यक अवसर पर/सज्जन-साधु पुरुषों को भी, आवेश-आवेग का आश्रय लेकर ही/कार्य करना पड़ता है। अन्यथा,/सज्जनता दूषित होती है/दुर्जनता पूजित होती है । जो शिष्टों की दृष्टि में इष्ट कब रही.?" (पृ. २२५)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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