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344 :: : मूकमाटी-मीमांसा
नियमरूप से / हर्षमय होता है" (पृ. १४); " पीड़ा की अति ही / पीड़ा की इति है " (पृ. ३३); " दया का होना ही / जीव-विज्ञान का / सम्यक् परिचय है” (पृ. ३७); "ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है" (पृ. ६४); "परमार्थ तुलता नहीं कभी / अर्थ की तुला में" (पृ. १४२); " 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/ 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक" (पृ. १७२) ।
'मूकमाटी' में चार खण्ड हैं- (१) संकर नहीं : वर्ण-लाभ ( २ ) शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं (३) पुण्य का पालन : पाप - प्रक्षालन (४) अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख । प्रथम खण्ड में पद, पथ और पाथेय की सांगोपांग विवेचना है । संगति और मति की, आस्था और भावना की चर्चा करते हुए विद्यासागर लिखते हैं :
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'आस्था के तारों पर ही / साधना की अंगुलियाँ / चलती हैं साधक की, सार्थक जीवन में तब / स्वरातीत सरगम झरती है !" (पृ. ९)
सही रास्ते पर पथिक के प्रथम पद का क्या महत्त्व है, इसका उल्लेख कवि के ही शब्दों में देखिए :
"पथ के अथ पर / पहला पद पड़ता है / इस पथिक का / और
पथ की इति पर/ स्पन्दन - सा कुछ घटता है / हलचल मचती है वहाँ !
पथिक की / अहिंसक पगतली से / सम्प्रेषण - प्रवाहित होता है विद्युतसम् युगपत् / और वह / स्वयं सफलता - श्री पथ की इति पर / उठ खड़ी है।” (पृ. २१-२२ )
कुशल शिल्पी निखरी माटी को नाना रूप देता है। माटी के माथे पर कठोर कुदाली से प्रहार होता है । व्यष्टिसमष्टि की एकरूपता में स्व के साथ पर का और पर के साथ स्व का ज्ञान होता है। संवेदन धर्मा चेतन ही करुणा का केन्द्र है। मृदुता और ऋजुता से ही शिल्प निखरता है । इस तरह प्रथम खण्ड में आचार्यजी ने वर्ण संकर की स्थिति, कुम्भकार की साधना और संयम के संस्कार, गति-मति और स्थिति की विकृति आदि पर विचार करते हुए कूप के बन्धन से मुक्त होकर धूप का वन्दन किया है। उसे शिव में राग जगाना ही अभीष्ट है।
दूसरे खण्ड में ‘अलगाव से लगाव की ओर' माटी के करुणामय कण-कण में जल का पहुँचना ऐसा लगता है जैसे 'ज्ञानी के पदों में अज्ञानी ने नव ज्ञान पाया हो'। यही है 'तन में चेतन का चिरन्तन नर्तन' । कवि की स्पष्ट धारणा है कि 'तामसता कायरता ही काम वृत्ति है' :
"कम बलवाले ही / कम्बल वाले होते हैं / और / काम के दास होते हैं । हम बलवाले हैं/राम के दास होते हैं / और / राम के पास सोते हैं ।" (पृ. ९२)
आचार्यजी ने कामदेव के पंच पुष्पों और महादेव के शूल का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है :
“कामदेव का आयुध फूल होता है / और / महादेव का आयुध शूल । एक में पराग है / सघन राग है / जिस का फल संसार है एक में विराग है / अनघ त्याग है / जिसका फल भव-पार एक औरों का दम लेता है / बदले में / मद भर देता है,
एक औरों में दम भर देता है / तत्काल फिर / निर्मद कर देता है।" (पृ. १०१ )
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