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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 343 नहीं है । आचार्य विद्यासागर ने शब्दों के भीतर पैठ कर उनके आभ्यान्तरिक मूल अर्थों को पकड़ा है, इसलिए गूढ सूत्रों के सरलतम अनुवाद 'मूकमाटी' में मौजूद हैं। कहा जाता है कि रचना से रचनाकार अलग नहीं होता यानी कविता ज़िन्दगी में ढलती है और ज़िन्दगी कविता में- “कुम्भ की कुशलता सो अपनी कुशलता"(पृ. २९६)। यहीं से सही शब्द बोध और जीवन बोध प्राप्त होता है अर्थात् शब्द और सत्य के बीच की दीवार मिट जाती है। यहीं पर शाश्वत जीवन सत्य अपने मानवीय फलक पर जीवन का सही पुरुषार्थ बनकर प्रकट होता है । इसे हम 'मंज़िल पर विश्वास की अनुभूति' कहें या 'शालीनता की विशालता में आकाश का समा जाना'- बात एक ही है । सन्तत्व और काव्यत्व का ऐसा सुन्दर समागम बहुत विरल होता है । महाकाव्य की प्राचीन परिभाषाएँ अब कोई मायना नहीं रखती - आठ सर्ग हों, कथावस्तु पौराणिक या ऐतिहासिक हो, नायक क्षत्रिय एवं धीरोदात्त हो, आदि । वास्तव में महाकाव्य वह है जो युग जीवन के अनुरूप मानव जीवन के विविध आयामों को कथावस्तु में इस तरह समेटकर चले कि मनुष्य उसके केन्द्र में हो और मनुष्यता का चरम पुरुषार्थ प्रेरित हो । उसमें देशकाल की सीमाओं को लाँघकर किसी महत् सन्देश की व्याप्ति और अनुगूंज हो। 'मूकमाटी' सही अर्थों में एक ऐसा प्रतीकात्मक महाकाव्य है जो स्वस्थ सामाजिकता में कवि दायित्व का निर्वाह करते हुए विश्व मानव की शिखरस्थ और उदात्त भावभूमि का विराट मानवीय सन्दर्भो में शोधपत्र या आलेख प्रस्तुत करता है। यहाँ पद, पथ और पाथेय का जो सार्वभौम स्वरूप दिखाई देता है वह इस कृति को अद्वितीय बनाता है । जहाँ कहीं भी मानवीय सदाशयता अपनी पराकाष्ठा पर दिखलाई देती है वहाँ सृजन अपनी उत्कृष्ट ऊँचाइयों पर होता है। एक बात साफ़ हो जानी चाहिए कि विद्यासागरजी का तत्त्व चिन्तन, दर्शन और अध्यात्म कहीं किसी सम्प्रदाय विशेष का हिमायती या प्रचारक नहीं है, वह शुद्ध मानव धर्म है। एक साधक, सन्त या कवि अपनी ऊर्ध्वमुखी चेतना में सबका हो जाता है । यदि ऐसा न होता तो कबीर, तुलसी और जायसी हम सबके दिलो-दिमाग़ पर कैसे छा जाते ? दरअसल सन्त और फकीर की मस्ती, तत्त्व विवेचन और मानवीय चेतना अपने परिष्कृत रूप में समग्र मानवता की होती है। उसे किसी धर्म विशेष तक सीमित करना न तो न्यायसंगत है और न औचित्यपूर्ण । क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर से निर्मित यह शरीर ‘माटी' की अहमियत को कैसे भूल सकता है ? सबसे पहला तत्त्व वही है । आचार्य विद्यासागर ने इस क्षिति तत्त्व को मंगल घट की विकास यात्रा देकर मिट्टी से बने इस मानव शरीर को जो चरम ऊँचाई दी है, वह अत्यन्त सारगर्भित है और जीवन का सही उपसंहार । इस महाकाव्य में युगजीवन की पूरी झलक मिलती है-चाहे नारी जीवन की व्यथा-कथा हो, आतंकवाद की त्रासद स्थिति हो अथवा क्रोध का शमन बोध के स्तर पर हो । शब्दों से उपजी नई व्याख्याएँ उनके अपरिमित ज्ञान और चिन्तन का परिचय देती हैं। __ किसी कवि का अधिकांश उद्धरण योग्य हो, ऐसा बहुत-बहुत कम होता है । आचार्य विद्यासागर के साथ यह बात अवश्य है । आखिर इसका कारण क्या है ? जब रचनाकार किसी विचारखण्ड को अनुभूति की प्रामाणिकता और भोगे हुए यथार्थ के आधार पर शब्दों की चरम मितव्ययता के साथ अभिव्यक्ति देता है तब कविता सूक्तियों में ढलने लगती है । जीवन का निचोड़ और अनुभव-सत्य सुभाषितों तथा अनमोल वचनों में रूपायित होने लगता है। यहीं पर रचना सूक्तिधर्मा हो जाती है और अपनी ध्वन्यात्मकता या व्यंजना में बहुत दूर तक मार करती है, वह गम्भीर घाव देती है या विचारों के जगमगाते मोती, जो अन्तर्तम तक प्रकाश फैला कर उद्वेलित करें-शान्त और संयत स्वर में । विद्यासागरजी के साथ यही बात है। वहाँ उपदेशात्मकता भी काव्यत्व को बाधित नहीं करती, जैसे- “चरणों का प्रयोग किये बिना/शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !"(पृ. १०); "निरन्तर अभ्यास के बाद भी/स्खलन सम्भव है" (पृ. ११); "अनुकूलता की प्रतीक्षा करना/सही पुरुषार्थ नहीं है"(पृ. १३); "संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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