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'मूकमाटी' : विकास यात्रा की निरन्तरता – पद, पथ और पाथेय
डॉ. सन्तोष कुमार तिवारी
जब किसी सन्त का सन्तत्व काव्य में ढलकर सामने आता है तो यह पूरे औदात्त्य के साथ मनुष्यता की उच्चतर भावभूमि पर हमें ले जाता है और ह्रासशील विघटन के बीच संयोजन और संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा वास्तविक जीवन मूल्यों को उद्घाटित करता है। वह केवल जीवन मूल्य ही नहीं अपितु सार्थक जीवन बोध देता है। आचार्य विद्यासागर की 'मूकमाटी' का यही रहस्य है ।
अकसर कविता के बारे में अशेष सृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्धों की चर्चा की जाती है किन्तु इस कसौटी पर आते कितने रचनाकार हैं ? सम-सामयिकता के बीच से उन विचार बिन्दुओं और अनुभव खण्डों की पकड़, जो सृजन
सार्थक और कालजयी बनाती है, कितने कवियों को अपने निकष पर खरा घोषित करती है । इन्द्रियजन्य सोच और अनुभवों को अपनी विकासशील जीवन यात्रा में कितने रचनाकार इन्द्रियातीत बनाने का माद्दा रखते हैं ? आचार्य विद्यासागर ने माटी की मूक व्यथा को ही रूपायित नहीं किया बल्कि उसे मंगलकलश की वह भव्य ऊँचाई प्रदान की है,
आधारभूत नींव को अनदेखा नहीं करती और जीवन को समग्रता में देखती है - खण्ड-खण्ड में नहीं ।
संश्लिष्ट जीवन चित्र को सम्पूर्णता में देखने की दृष्टि बहुत विरले साधकों को होती है। यह बात गौरतलब है कि सन्त की यह रचना आचरणजन्य भाषा की साधना है। ऐसे ही रचनाकारों के बीच कविता स्वतः स्फूर्त होती है और शब्द अनुभूति के अनुरूप ढलते जाते हैं - नया निर्माण पाते हुए सुविन्यस्त होते हुए । व्याकरण को काव्यात्मकता प्रदान करने में डॉ. रामकुमार वर्मा को 'एकलव्य' में जो महारत हासिल हुई है, वही कमाल 'मूकमाटी' में आचार्य विद्यासागर ने कर दिखाया है । अंकों के चमत्कार, शब्द ध्वनियों की पकड़, मन्त्र ज्ञान और अक्षरों में निहित अर्थ की व्याप्ति- अपने आप कविता में ढल गई है । जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' में चिन्ता से आनन्द की मनोवैज्ञानिक और समरस भावभूमि का जो निरूपण किया है, वह हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है । आचार्य विद्यासागर ने कुम्भकार शिल्पी के द्वारा पद दलित माटी की मंगल घट के रूप में जो चरम ऊँचाई निरूपित की है, वह विकासशील जीवन के तमाम पड़ावों को समेटकर मुक्तियात्रा का काव्यात्मक रूपक बन गई है। उसमें माटी की मूक व्यथा है, परिशोधन है, विकार रहित जीवन की साधना है, मंगल घट की चरम सर्जना है और वह भी अन्त में गुरु के पाद प्रक्षालन में समर्पित भावना के साथ । जीवन का ऐसा दार्शनिक निचोड़ आधुनिक काव्य साहित्य में बहुत दुर्लभ है। प्रसाद ने 'कामायनी' में इच्छा, कर्म और ज्ञान के तीन गोलक दिखाकर उस अखण्ड आनन्द की सृष्टि की है, जहाँ जड़ और चेतन समरस हो जाते हैं । सन्त कवि विद्यासागर ने माटी को कंकरों से मुक्त कर यानी जीवन को विकार रहित बनाकर उसे जो वर्ण-लाभ दिया है और आत्यन्तिक ऊँचाई पर जाकर गुरु के चरणों में समापन दिया है, वह जीवन दर्शन, अध्यात्म चेतना और विकासशील दृष्टि अपने आप में बेमिसाल है। विद्यासागरजी की संवेदित वैचारिकता में जो दार्शनिक चेतना का समाहार हुआ है उसने कविता को अध्यात्म और अध्यात्म को कविता बना दिया है। यह एक प्रज्ञापुरुष के वैचारिक शिखर से फूटी हुई सुधा रस की वह धार है जो अपने लोककल्याणी रूप में विश्व मानवता को परिपुष्ट करती है ।
जब पाण्डित्य सहजता और सरलता में ढल जाए तब 'गिरा अर्थ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न' की असाधारण स्थिति प्राप्त होती है। आचार्यजी ने केवल शब्दों को ही नहीं शोधा बल्कि उनकी ध्वनियों को पकड़कर अर्थों को मूर्त रूप दिया है। नई - कविता - किरीटी -पुरुष अज्ञेय ने यह बात उठाई थी कि उपमान मैले हो गए हैं और शब्द बासे, इसलिए शब्दों में नई अर्थवत्ता परमावश्यक है । दरअसल शब्द ब्रह्म है, इसलिए शब्द साधना, ब्रह्म साधना से क