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मूकमाटी-मीमांसा :: 341 वही मूर्ति है वही मुखड़े/वही अमूर्च्छित-तनी मूंछे/वही चाल है वही ढाल है वही छल-बल वही उछाल है/क्रूर काल का वही भाल है वही नशा है वही दशा है/काँप रही अब दिशा-दिशा है वही रसना है वही वसना है/किसी के भी रही वश ना है सुनी हुई जो वही ध्वनि है/वही वही सुन ! वही धुन है। वही श्वास है अविश्वास है/वही नाश है अट्टहास है/वही ताण्डव-नृत्य है वही दानव-कृत्य है/वही आँखें हैं सिंदूरी हैं/भूरि-भूरि जो घूर रही हैं वही गात है वही माथ है/वही पाद है वही हाथ है/घात-घात में वही साथ है, गाल वही है अधर वही है/लाल वही है रुधिर वही है/भाव वही है डाँव वही है
सब कुछ वही नया कुछ नहीं/जिया वही है दया कुछ नहीं।” (पृ. ४५५) आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर को समर्पण करते हुए इस 'मूकमाटी' के प्रारम्भ में 'मानस-तरंग' देकर अपने अभिप्राय को पूर्णरूपेण स्पष्ट किया है। प्रयोजन रूप प्ररूपित करने उन्होंने अन्तिम वाक्य जोड़ा है : “जिसने शुद्ध-सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है और जिसका नामकरण हुआ है 'मूकमाटी'।"
___ 'मूकमाटी' के पूर्व आपके द्वारा सृजित हिन्दी रचनाएँ तथा संस्कृत की शतक रचनाएँ, जो बिखरे मोती कही जा सकती हैं, अभूतपूर्व रचनाएँ हैं। उनमें भी 'मूकमाटी' के उसी पक्ष का निखार, उभार है जो नैतिकता और त्याग, तपस्या, वैराग्य के कठोर अनुशासन से अनुप्राणित है । जन्म से कन्नड़ भाषी होते हुए भी हिन्दी में असाधारण रचनाएँ रचकर तथा 'मूकमाटी' जैसे महाकाव्य का निर्माण कर कवि ने अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया है जो उनकी संस्कृत में की गई कृतियों में भी झलकती है । उन्होंने दर्शन, धर्म एवं अध्यात्म की आधार शिलाओं पर ही व्यक्ति, समाज, देश
और सम्पूर्ण विश्व को अपना स्वयं का एक दर्शन अवतरित कर समर्पित किया है जो उनकी कृति 'मूकमाटी' में स्पष्ट रूप से झलक आया है। इस दर्शन की भाषा निराली है, सरल है, सत्य अनुगामी है, व्युत्पत्तिपरक है। इस दर्शन का रहस्य उनका उच्चतम कोटि का योग है । यह योग ज्ञान, चारित्र और तपस्या से ओतप्रोत है । यह विलक्षणता उन्हें एक ऐसे स्वतन्त्र विचारक एवं रचयिता के रूप में ढाल लाई है कि जिसका प्रतिफलन आज देश में वैचारिक क्रान्ति उस युवावर्ग में पनपी दिखाई दे रही है जो विलास के सम्पूर्ण साधनों से दूर नहीं था।
यह वैचारिक क्रान्ति सहृदयता एवं अनुशासन की आधार शिलाओं पर पनपी है, खड़ी है, अत: उसे 'मूकमाटी' की छाया कहना उचित होगा । आशा है, अगली पीढ़ी के हाथों में भी 'मूकमाटी' होगी जो उन्हें सशक्त, सक्षम एवं सहृदय अनुशासित नागरिक बनाने में पूरा योगदान दे सकेगी। ___आचार्यश्री एवं कविश्री विद्यासागरजी की अनेक कृतियों पर विश्वविद्यालयों में शोध कार्य प्रारम्भ हो चुके हैं, कुछ समाप्त भी हो चुके हैं। यदि शोधपरक कार्य उनके क्रान्तिकारी दर्शन को लेकर हो सके, जो 'मूकमाटी' में उजागर हुआ है, झलका है तो उनके प्रकाशन से भूले-भटके, रूढ़िवादी, पिछड़े समाज एवं देश को एक नई दिशा, नया आयाम, नया मार्ग प्राप्त हो सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।