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मूकमाटी-मीमांसा :: 339
अल्प-काल वाला लगता है सागर।/एक ही वस्तु अनेक भंगों में भंगायित है/अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित !
मेरा संगी संगीत है/सप्त-भंगी रीत है।” (पृ. १४६) करुणा के द्वारा प्रकृति पर्यावरण की सुनिशिचित सुरक्षा इन पंक्तियों में निहित है :
"प्रकृति माँ की आँखों में/रोती हुई करुणा,/बिन्दु-बिन्दु कर के दृग-बिन्दु के रूप में/करुणा कह रही है/कण-कण को कुछ : 'परस्पर कलह हुआ तुम लोगों में/बहुत हुआ, वह गलत हुआ। मिटाने-मिटने को क्यों तुले हो/इतने सयाने हो!/जुटे हो प्रलय कराने विष से धुले हो तुम !/इस घटना से बुरी तरह/माँ घायल हो चुकी है
जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का वृण सुखाओ' !" (पृ. १४८-१४९) कविता में एक अभिनव नाटकीय ढंग से अंकों का प्रयोग कर मंज़िल की पहचान प्रस्तुत की गई है :
"९९ और ९ की संख्या/जो कुम्भ के कर्ण-स्थान पर आभरण-सी लगती अंकित हैं/अपना-अपना परिचय दे रही हैं। एक क्षार संसार की द्योतक है/एक क्षीर-सार की।
एक से मोह का विस्तार मिलता है,/एक से मोक्ष का द्वार खुलता है।” (पृ. १६६) जड़ और चेतन की परख कराना विश्व चेतना को जाग्रत करना है :
“भोग पड़े हैं यहीं/भोगी चला गया,/योग पड़े हैं यहीं/योगी चला गया, कौन किस के लिए-/धन जीवन के लिए/या जीवन धन के लिए ? ।
मूल्य किसका/तन का या वेतन का,/जड़ का या चेतन का?" (पृ. १८०) नीति विषयक एक लेश्या प्रसंग निम्नलिखित है :
"जब सुई से काम चल सकता है/तलवार का प्रहार क्यों ? जब फूल से काम चल सकता है/शूल का व्यवहार क्यों? . जब मूल में भूतल पर रह कर ही/फल हाथ लग रहा है तब चूल पर चढ़ना/मात्र शक्ति-समय का अपव्यय ही नहीं,
सही मूल्यांकन का अभाव भी सिद्ध करता है।” (पृ. २५७) कसौटी के प्रति कवि के विचार एक नवीन रहस्य को प्रस्तुत करते हैं :
"अपनी कसौटी पर अपने को कसना/बहुत सरल है पर सही-सही निर्णय लेना बहुत कठिन है,/क्योंकि,/अपनी आँखों की लाली अपने को नहीं दिखती है। एक बात और भी है, कि जिस का जीवन औरों के लिए/कसौटी बना है/वह स्वयं के लिए भी बने,